ज्ञान के मोती
चेतना में ज्ञान संरचित होता हैं !!!
Posted: 11 May 2011 09:05 AM PDT
४,मई, २०११, बैंगलुरू आश्रम
प्रश्न: लोगो को मुझ से बहुत अपेक्षाये है, इसके लिए मैं क्या करू ?
श्री श्री रवि शंकर: यह उनकी समस्या है, आप अपनी योग्यता का १०० प्रतिशत प्रयास करे, और उसके लिए जो भी कर सकते है, उसे करे , और फिर भी यदि कोई और अपेक्षा करे तो यह उनकी समस्या है|
( श्री श्री ने श्रोताओ से भगवत गीता को सीखने में उनके प्रगति के बारे में प्रश्न किया | फिर श्रोताओ ने सातवें अध्याय के श्लोको का मंत्रोचारण किया, और श्री श्री ने उनके अर्थ पर प्रकाश डाला )
जब कोई योगी निद्रा में होते है, तो हर कोई जागता है| और जब हर कोई निद्रा में होते है, तो योगी जागते है | यह बात भगवान श्री कृष्ण भगवत गीता में कही है | क्या आपने इसे पहेले सुना है ? इसका क्या अर्थ है? इसका सरल अर्थ है, जब हर कोई उत्तेजित और चिंतित होता है,कि क्या होने वाला है तो योगी आरामपूर्वक विश्राम करते है | योगी जानते हैं कि सबकुछ उत्तम और जन सामान्य के लिए अच्छा ही होगा | योगी में यह विश्वास होता है | और जब सब कोई निद्रा में होते है और योगी जागते है का अर्थ है, योगी जीवन के सत्य के बारे में सचेत होते हैं, जब हर कोई निद्रा में होते हैं| यह कोई विचार नहीं करता कि उसका अंत क्या होगा, वह कहां पर जायेगा, जीवन क्या है, और मैं कौन हूं | जब इनमे से कोई भी प्रश्न लोगो के मन में उत्पन्न नहीं होते है तो वे निद्रा में है|
लोग सिनेमा देखने मे और विडियो गेम खेलने मे लुप्त हो गए हैं | ऐसे भी कई लोग हैं जो वृद्ध अवस्था मे विडियो गेम खेलने की शुरुवात करते हैं | व्यक्ति यह नहीं देख रहा हैं कि मृत्यु निकट आ रही हैं | वह यह सोचता ही नहीं हैं कि कैसे उसने अपने मन मे इतनी लालसा और घृणा को एकग्रित करके रखा हैं | और वह अपने मन को साफ और स्वच्छ करने के लिए कुछ नहीं करता | यदि आप इन मन के संस्कारो की सफाई नहीं करते हैं तो फिर आप को वही मन और संस्कार मृत्यु के बाद भी ढोने होंगे |
जब आप की मृत्यु होती हैं तो आपका मन खुश और आनंदमयी होना चाहिए | जो कोई भी ऐसी निद्रा में होता है तो वह अपने भीतर मन में कचरा एकाग्रित कर रहा होता है | परन्तु योगी सतर्क और सचेत होते हैं और वे अपने मन में किसी का भी बाहरी कचरा नहीं लेते | उस आदमी ने मुझे ऐसा क्यों कहां ? उस महिला ने मुझे ऐसा क्यों कहां ?
आपका मन पूरी तरह से दूसरों की त्रुटियों के बारे में सोचने मे नष्ट हो जाता है | दूसरों की त्रुटियों को उनके पास ही रहने दीजिये | उनसे उन्हें ही निपटने दीजिये | आप अपने मन और त्रुटियों से निपटे, वही काफी है | क्या आप मे दूसरों की गलतियों को स्वीकार करने का धैर्य है? आपको दूसरों की गलतियों को स्वीकार करना चाहिए और फिर आपसे जितना हो सके उन गलतियों को सुधारे | यदि आप अत्यंत दयालु है, तो ही उसे सुधारे| यद्यपि उसे प्रकृति पर छोड़ दीजिये, उन्हें अपना मार्ग मिल ही जायेगा| परन्तु यदि आप करुणामय है, तो उसे करुणा के साथ सुधारे, फिर वह आपके मन या मस्तिष्क पर हावी नहीं होगा |
आप कब क्रोधित या उदास होते हैं ? जब आपने किसी के कृत्य मे त्रुटियों को देखा | क्या आप इस तरह से किसी की त्रुटियों को ठीक कर सकते है ? उनके कृत्य मे त्रुटि थी परन्तु अब उसके बारे मे सोच कर आपका मन त्रुटिपूर्ण बन गया है | कम से कम अपने मन को तो संभाल कर रखे | यदि कोई गलत मार्ग पर चला गया है, तो क्यों आपका मन भी गलत मार्ग पर भटक जाना चाहिये ! ठीक है ? इसलिए वे कहते है कि और जब हर कोई निद्रा में होता है, तो योगी जागते है | और जब आप ऐसी निद्रा में होते है तो आप अपने मन के भीतर दूसरों का कचरा एकाग्रित कर लेते है | परन्तु योगी ऐसा नहीं होने देते | वे अपने मन की ताज़गी बनाये रखते है |
प्रश्न: परिवर्तन सतत होता रहता हैं | क्या भगवत गीता का ज्ञान भी इस सदी के लिए बदल जाएगा ? क्या कोई नवीनतम ज्ञान का उदय होगा ?
श्री श्री रवि शंकर: हां जैसे आपका मन खिल जाता हैं, वैसे ही ज्ञान के नवीन स्वरुप आप में खिल उठते हैं | चेतना में ज्ञान संरचित होता हैं |
( श्री श्री ने सातवें अध्याय के अर्थ को पुनः समझाना प्रारंभ किया )
आपका मन कहां आकर्षित होता हैं ? वह सुंदरता, प्रकाश और शक्ति के ओर आकर्षित होता हैं | भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, कि जिसमे भी तुम्हारा मन आकर्षित हो, उसमे मुझे देखो | यदि कुछ सुंदर हैं तो वह इसलिए सुन्दर हैं क्योंकि उसमे जीवन हैं, और वही चेतना हैं | इसलिए मन स्तोत्र मे चला जाता हैं| भगवान श्री कृष्ण कहते हैं:सूर्य का प्रकाश मैं हूं| मैं जल की तरलता हूं | पृथ्वी की सुगंध मैं हूं | अग्नि मे अग्नि मैं ही हूं |
हम सूर्य समान पदार्थ से बने होते हैं | यदि सूर्य न हो तो पृथ्वी नहीं होगी और यदि पृथ्वी नहीं होगी तो आप नहीं होंगे |
यदि आप आज क्वांटम भौतिक विज्ञानिक से बात करेंगे तो वह भी यही बात कहेंगे कि सबकुछ एक ही तरंग से बना हैं |
यही बात भगवान श्री कृष्ण ने कही : मैं हर किसी मे जीवन हूं |
अपने मन के भीतरी गहन मे जाकर उस प्राण शक्ति को देखे जो हम सब हैं |
मैं ही जीवन मे हूं |
जीवन भगवान हैं |भगवान कुछ जीवन के बहार नहीं हैं | जीवन दिव्यता हैं |
शरीर के भीतर जीवन दिव्य हैं| फिर मन किसकी कामना करता हैं? यह सुख, वह सुख | इस क्षण मे जीवन पर ध्यान दे | सिर्फ मेरा ही जीवन भगवान नहीं हैं | हर जगह जीवन मे वही आत्मा हैं |
भगवत गीता का सातवां अध्याय अत्यंत सुन्दर हैं |
भगवत गीता मे, प्रत्येक अध्याय एक एक कर के प्रकट होते हैं |
विषद योग के अध्याय मे अर्जुन अत्यंत बैचैन और कांपते हुए दिख रहे हैं |
सांख्य योग मे भगवान कृष्ण अर्जुन को कहते हैं, जाग जाओ – तुम्हारी आत्मा को कुछ नहीं हुआ हैं | खुशी और दुःख आते जाते रहते हैं |
कर्म योग मे भगवान कृष्ण अर्जुन को कर्म करने के लिए कहते हैं |वे कहते हैं कर्म के बिना तुम कुछ भी नहीं कर सकते | यहां तक यदि तुम्हे खड़ा होना या बैठना हैं, तो भी कर्म आवश्यक हैं| इसलिए कुछ करो |
कर्म योग के बाद ज्ञान योग हैं, जिसमे बताया गया हैं कि आप जो भी कार्य कर रहे हैं उसे समझ लिजिये |
ज्ञान और कर्म योग के उपरान्त ध्यान योग हैं, जिसमे भगवान कृष्ण कहते हैं, कृत्य करने के पहेले ध्यान करे और कृत्य समाप्त होने के उपरान्त भी ध्यान करे |
इस प्रणाली से प्रत्येक अध्याय एक एक कर के प्रकट होते हैं |
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