Friday 8 October 2010

ज्ञान के मोती

‘मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं यहाँ आपके लिए हूँ'

Posted: 27 Sep 2010 07:24 AM PDT


किसी के भी जीवन में यह सबसे खूबसूरत घटना होती है जब कोई यह महसूस कर सके किे, ‘मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं यहाँ आपके लिए हूँ।’ मुझे ऐसी किस्मत मिली है कि मै शुरु से ही यह कह सकता था। मेरी इच्छा है कि अधिक से अधिक लोग ऐसा ही महसूस करें। क्या आप कल्पना कर सकते हैं समाज कैसा होगा जब हर कोई यही सोच रखेगा? यह गुण तो पहले से ही सब में है। पर यह कहीं छिप गया है।

जब एक राष्ट्र का नेता ऐसा महसूस करता है तभी देश प्रगति करता है। और जब उसका ध्यान देश और देशवासियों पर केन्द्रित होता है तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि उसकी ज़रुरतें ना पूरी हों। पर जब हम केवल अपनी ज़रुरतों पर ही ध्यान देते हैं तो हम अपने को और अपनी कुशलता को पूर्ण रूप से निखरने का मौका नहीं देते। हमे हमेशा यही चिश्वास रखना चाहिए कि हमारी ज़रुरते पूरी होंगी।

इसका मतलब यह नहीं है कि कोई ज़रुरत महसूस होती हो तो आप ज़बरदस्ती मन बनाए कि, ‘नहीं मेरी तो कोई ज़रुरत ही नहीं है।’ यह भाव पूर्णता की स्थिति में पनपता है, ना कि अपनी ज़रुरतों को दबा देने से या अनदेखा करने से। जब तुम सर्वोच्च ज्ञान की ओर ध्यान देते हो तो तुम्हारी ज़रुरतें समय से पहले ही पूर्ण हो जाती हैं।

यह बहुत खुशी की बात है कि आर्ट ऑफ़ लिविंग समाज के विभिन्न वर्गों को एक साथ ला रहा है। किसी भी धर्म का केन्द्र प्रेम ही है और आर्ट ऑफ़ लिविंग भी इसी प्रेम के सिद्धांत पर आधारित है, ‘मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए, मैं यहाँ आपके लिए उपस्थित हूँ।’ दुनिया में अधिक से अधिक लोगों को ऐसी सोच अपनानी चाहिये।

अगर हर कोई ऐसा ही सोचने लगे तो यहे दुनिया स्वर्ग बन जायेगी। पर, हर कोई अगर यह सोचे कि वह दूसरों से क्या ले सकता है, तो दुनिया की मौजूदा हालत तो हम देख ही रहे हैं!

हम दुनिया को स्वर्ग बनाने में लगे हुए हैं, और इस काम को होता देख कर बहुत खुशी हो रही है। तो, हर दिन हम यह मान कर आगे बढ़ते हैं कि, ‘मैं आपका हूँ।’ इस ज्ञान से प्रेम, कर्म, मस्ती और उत्सव का उदय होता है।


ज्ञान के मोती

दिल्ली में सत्य साईबाबा अंतर्राष्ट्रीय केन्द्र में श्री श्री रवि शंखर द्वारा दिये ज्ञान से कुछ अंश

03 Oct 2010 10:33 PM PDT


प्रश्न: अगर ईश्वर हमारे भीतर ही है तो बचपन में हमें बाहर मंदिर में पूजा करना क्यों सिखाया जाता है? हमें अपने भीतर ही ईश्वर को ढूँढना क्यों नहीं सिखाया जाता? अगर हमें बचपन से ही यह सिखाया जाता तो कितना आसान हो जाता।
श्री श्री रवि शंकर: हाँ, परपंरा को समझने में कहीं गलती हो गई। पहले 8-9 साल के बच्चे को सबसे पहले जो सिखाया जाता था - वहथा गायत्री मंत्र का जाप। और क्या करते थे इसके दौरान? इस भाव से जप करते थे कि सब मेरे भीतर ही है। इसीलिए इसे ब्रह्मउपदेश कहते थे। जैसे सूरज हमारे भीतर और बाहर है, वैसे ही आध्यात्मिक सूरज तुम्हारे भीतर है। तो चमकता हुआ सूरज बताता हैकि तुम्हारे भीतर भी रोशनी देने वाला ऐसा ही सूरज है। बच्चे को पहले ध्यान और फ़िर कुछ अनुष्ठान (ritual) सिखाये जाते थे।अनुष्ठान में भी कुछ सार है। हम उन्हे बिल्कुल अनदेखा नहीं कर सकते। उनके पीछे वैज्ञानिक गहराई है और उन्हें रखने का एककारण है। उनसे एक वातावरण बनता है, भाव उदय होता है। मन हमेशा बाहर की वस्तु से जुड़ता है। मेरे आसपास कितना आकाश तत्व है, पर मन उससे नहीं जुड़ता। तुम उससे संबंध जोड़ते हो जिसे तुम देख सकते हो, सुन सकते हो या बात कर सकते हो। इसलियेलोगों ने यह मूर्तियाँ बनाई ताकि भाव जग सके। अगर गहराई से देखें तो मंदिर के बाहर रखी जाने वाली मूर्तियाँ एक वैज्ञानिक दिमागकी रचना है। जब पहले मूर्ति के अंगो पर ध्यान केन्द्रित करते हो और फ़िर ध्यान में गहरे उतरते हो तो मन से वो छाप धुल जातीहै।

सारी दुनिया में तुम पाते हो कि हर धर्म के साथ कुछ प्रतीक जुड़े हैं। सिख गुरु ग्रन्थ साहिब से जुड़े हैं, जैन महावीर भगवान की मूर्तिसे जुड़े हैं और बौद्ध धर्म के लोग बुद्ध से जुड़े हैं। इसी तरह इस्लाम धर्म के लोग भी...मस्जिद को देखते ही मन में एक भाव जगता हैकि नहीं? कुरान को देखते ही मन में एक भाव उठता है कि नहीं?

अगर हम एक किताब के साथ अपना भाव जोड़ सकते हैं तो राम की मूर्ति से क्यों नहीं! मूर्ति है ही इतनी सुंदर कि अपने आप हीभाव उमड़ता है। इन सब चीज़ों के पीछे एक गहरा मतलब छिपा है। नहीं तो इस देश में इतने विद्वान रहे हैं, वो यह सब हटाने केलिए कह सकते थे। पर उन्होने ऐसा नहीं किया। क्यों? उन्हे मालूम था कि कुछ लोगों को इससे फ़ायदा हो रहा है। पर अगर आप इनसब के ऊपर उठना चाहते हैं तो आप वेदान्त की ओर चलते हैं - अद्वैत ज्ञान। अद्वैत (Non-dual existence) का ज्ञान - द्वैत से अद्वैत -उसमें स्थिर होते हैं।