Saturday 31 July 2010

अंहकार


अंहकार का अर्थ है किसी एक पहचान में फंस जाना
प्रश्न: विकास के आधुनिक सिद्धांत (Modern theory of evolution) के बारे में आपके क्या विचार हैं? अगर यह सत्य है तो आत्माएं किस चरण में आती हैं? उससे पहले आतमाओं की क्या स्थिति होती है?
श्री श्री रवि शंकर: आधुनिक सिद्धांत विकसित हो रहे हैं उनके अनुसार सब कुछ कहीं से शुरु हुआ है मैं इसे linear understanding कहूँगा लेकिन एक spherical thinking भी है जिसकी यहाँ कमी है ओरिएंट में sperical thinking रही है पच्छम में linear understanding सबका कहीं से शुरु होना आवश्यक है एक एडम और ईव होने ही चाहिए जिनकी सब संतान हैं इसके आधार पर हर कोई एक दूसरे का भाई यां बहिन है तो फिर कोई किसी से शादी कैसे कर सकता है? इस तरह से शादी ही एक अपराध हुआ अगर ईश्वर एक एडम और ईव बना सकते हैं तो वह ऐसे और भी बना सकते थे और फिर ईश्वर ने ऐसा ज्ञान का फल क्यों बनाया जिसे खाने के लिए मना ही करना था? इस तरह से हमारी सोच बहुत संकुचित है और हमे व्यापक समझ अपनाने की आवश्यकता है हमे गोलाकार सोचने की आवश्यकता है शुरुआत में किसी एक जीव का नहीं बल्कि सबकी, सब वस्तुयों की एक साथ रचना हुइ अगर मैं तुमसे पूछ्ता हूँ कि टैनिस की गेंद का प्रारंभ बिन्दु कौन सा है तो तुम्हारा क्या उत्तर होगा? गेंद पर हर एक बिन्दू पहला है, और अंतिम भी प्राचीन लोगों की यही सोच रही तभी उन्होने कहा, "संसार आदि है और अनंत भी", अर्थात इसकी ना शुरुआत है और ना ही अंत आत्मा की ना कोई शुरुआत है और ना अंत जिस कारण ब्रह्मांड का अस्तित्व है , उस दिव्यता की ना शुरुआत है और ना ही अंत तीनो एक ही हैं यही अद्वैत का सिद्धांत है कि सब कुछ एक ही तत्व से बना है यही theory of relativity है String theory और आधुनिक वैज्ञानिकों का भी यही कहना है आइन्सटाईन भगवद गीता का अध्ययन करके हैरान रह गया था
ब्रह्मड में सबकुछ, चाहे जीवीत है यां अजीवित, एक ही चेतना से बना है प्राचीन ग्रंथ जैसे उपनिष्द और गुरु ग्रंथ साहिब में भी यही कहा गया है सिक्खों में अभिवादन करने का बहुत उत्तम तरीका है - सत्श्रियाकाल सत+ श्री + अकाल: सत - सत्य, श्री - धन, अकाल - जो समय से परे है तो जब आप यह कह कर अभिवादन करते है, आप एक दूसरे को अपना वासत्विक स्वरूप याद दिलाते हैं, वो स्वरूप जो समय से परे है और आपका असली धन है तुम अपने से बाहर क्या ढूंढते हो, सब कुछ अपने भीतर ही है
प्रश्न: यदि सब कुछ बदल रहा है, कुछ भी करने का क्या मतलब है?
श्री श्री रवि शंकर: यह सवाल पूछने में क्या मतलब है? उत्तर समझने में क्या मतलब है? हम कुछ करते हैं क्योंकि हम कुछ किए बिना नहीं रह सकते
यह भी बदलाव का हिस्सा है
'सब कुछ बदल रहा है' - यह समझने के लिए है
पर हमें कुछ करते रहना है, और यदि हम ऐसा करते हैं जो हमे शांति देता है और विकास की तरफ ले जाता है तो यह बहाव की दिशा में तैरने जैसा है
और कुछ ऐसा करना जो हमे विकास से दूर ले जाता है, बहाव की उल्टी दिशा में तैरने जैसा है
अहंकार क्या है? क्या अहंकार और प्रेम एकसाथ चल सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर: अहंकार अलगाव की भावना है, एक अलग पहचान की भावना
तीन प्रकार का अहंकार है:
१. 'मैं यह हूँ'
२. 'मैं यह नहीं हूँ'
३. 'मैं दूसरों से भिन्न हूँ'
अहंकार कैसे लुप्त हो सकता है?
जब अहंकार का विस्तार होता है 'मैं यह हूँ', 'मै यह भी हूँ', 'मैं वो भी हूँ' मुश्किल तब होती है जब हम किसी एक पहचान में फंस जाते है जैसे कि अगर तुम सेना अधिकारी हो और घर पर भी तुम वैसा ही व्यवहार करते हो तो मुश्किल होती है तुम सेना अधिकारी हो, यह तुम्हारी एक पहचान है पर तुम एक पिता, एक पति, एक पुत्र भी हो यह सभी तुम्हारी पहचान है जब तुम इन सब भूमिकाओं को एक जैसा महत्व देते हो तो अहंकार घुल जाता है एक संकुचित पहचान से दिव्यता के साथ पहचान करना ही अहंकार का विस्तार करना है तुम मैंपन से अहं ब्रह्म की ओर बढ़ते हो 'मैं कुछ हूँ' से 'मैं कुछ नहीं हूँ', और 'मैं कुछ नहीं हूँ' से 'मै सबकुछ हूँ' पर यह बहुत दार्शनिक लगता है तुम अपने दफ्तर में जाकर यह नहीं कह सकते कि तुम कुछ नहीं हो ना ही तुम अपने घर पर कह सकते हो कि तुम सबकुछ हो ऐसा करने से कुछ नहीं होगा मैं कहूँगा, अपने अहंकार से बाहर आने का सबसे श्रेष्ठ तरीका है - सहजता
अहंकार से तुम असहज, अप्राकृतिक और अलग महसूस करते हो हर किसी से हर परिस्थिति में सहजता से व्यवहार करना, यह एक बच्चे की तरह सरल रहना है
अहंकार के बारे में एक अंतिम बात यह कहूँगा कि अगर तुम्हे लगता है कि तुममें अहंकार है तो इससे छेड़-छाड़ मत करो इसे अपनी जेब में रखो और चिन्ता मत करो
प्रश्न: मैं अपने शरीर को शुद्ध कैसे कर सकता हूँ?
श्री श्री रवि शंकर: प्राणायाम, सही भोजन, मन और शरीर को विश्राम देकर, और सही मार्गदर्शन में उपवास रखकर
प्रश्न: हम कौन से निर्णय दिल से लेते हैं और कौन से दिमाग से?
श्री श्री रवि शंकर: व्यापार दिमाग से और सेवा दिल से करो
अहंकार (Ego)
"समाज में शांति के लिए राजनीति में आध्यात्मिकता, व्यापारिक कंपनियों में सामाजिक दायित्व की भावना और धर्म में धर्मनिरपेक्षता होना आवश्यक है"
Ramsay Taum (Director of External Relations & Community Partnerships, University of Hawaii at Manoa and Chairman of the Board of Sustain Hawaii) ने एक हवाइ मंत्र के साथ श्याम की शुरुआत की। फ़िर उन्होने भारतीय और हवाइ सभ्यता की समानता के बारे में कहा। श्री श्री ने धन्यवाद देते हुए शुरुआत की।
श्री श्री रवि शंकर : एक ही बात को एक अलग नज़रिए से सुनकर बहुत अच्छा लगा। यह बहुत ही सुन्दर है कि किस तरह सभी सभ्यतायों में एक जैसी बात कही गई है। जिस तरह Ramsay Taum ने ज़िक्र किया, उसी तरह संस्कृत में भी पाँच तत्व हैं - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। फिर हैं मन, बुद्धि और अहंकार। और फ़िर आत्मा।
जब हम ने एक दूसरे को mahalo कह कर नमस्कार किया, तो वो अहंकार से परे एक कदम है। ’मा’ का अर्थ है - जिसे तुम जानते हो। बच्चे का पहला शब्द माँ होता है। एक बच्चा मैं की भावना से परे देखता है। यह बहुत ही सुन्दर है कि दुनिया में सभी सभ्यतायों का मूल एक जैसा ही है।
प्रश्न : हम अहंकार पर काबू कैसे कर सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : अहंकार को काबू करने का प्रयास भी मत करो। अगर तुम्हे लगता है कि तुममे अहंकार है तो इसे अपनी जेब में रखो। अहंकार को काबू करने में उससे भी बड़ा अहंकार हो जाता है। अहंकार अनदेखा किया जाना पसन्द नहीं करता। अहंकार का इलाज है - बच्चे की तरह सरलता में रहना। अगर फ़िर भी तुम्हे अहंकार परेशान करे तो उसे वहीं रहने दो।
प्रश्न : कुछ लोग लालची और क्रूर क्यों होते हैं? हम उन्हे बदल सकते हैं यां उन्हे वैसे ही स्वीकार कर लेना चाहिए?
श्री श्री रवि शंकर : कुछ लोग नहीं जानते वो भीतर से कितने सुन्दर है। हर अपराधी के भीतर हालात का शिकार एक व्यक्ति मदद की पुकार कर रहा है। कोई भी पैदाइश से हिंसक नहीं होता। सही शिक्षा के अभाव में इन्सान ऐसा बन जाता है।
प्रश्न : ध्यान का यह तरीका अन्य तरीकों से कैसे विशेष है?
श्री श्री रवि शंकर : यह तुम्हे साधारन बनाता है और यह केवल साधारन लोगो के लिए ही है। अगर तुम खुद को बहुत विशेष मानते हो तो ध्यान नहीं होगा। इसकी यही विशेषता है।
प्रश्न : हमें प्रेम के बारे में कुछ बताएं। अनुशासन का पालन कैसे करें?
श्री रवि शंकर : तुम अपने पर किसी चीज़ को प्रेम करने यां ना करने के लिए दबाव नहीं डाल सकते। सहजता से अपने स्वभाव में रहो।
तीन सूरतों में तुम अनुशासन का पालन कर सकते हो:
प्रेम, भय और लालच। जब तुम प्रेम में होते हो तो अनुशासन सहज ही हो जाता है। किसी चीज़ का भय यां कोई बड़ा लालच भी तुम्हे अनुशासन में रखता है।
प्रश्न : अपना भाग्य पूरा करने के लिए क्या चाहिए?
श्री श्री रवि शंकर : विश्वास - यह विश्वास की तुम अपना भाग्य पा सकते हो।
प्रश्न : क्या विश्व के नेता दुनिया की मुश्किलों का हल कर सकते हैं? यां वो आर्थिक रूप से कुछ ही लोगो से प्रेरित हैं?
श्री श्री रवि शंकर : मुझे लगता है तुम्हारे प्रश्न में उत्तर भी है। मुझे लगता है ऐसे बहुत से विश्व के नेता हैं जो समाज के लिए कुछ अच्छा करना चाहते हैं पर उनके हाथ बन्धे हैं। बहुत बार वो सामाजिक व्यवस्था के कारण कुछ कर नहीं पाते। कुछ ऐसे भी हैं जिनको केवल अपनी पदवी और पार्टी से ही मतलब है। लोगों के हित से ज़्यादा इनके लिए अगले चुनाव और पार्टी की ज़रुरतें ज़्यादा महत्वपूर्ण है। ये बड़े मुद्दों पर काम करना भी चाहें तो इनके सामने अपने राजनीतिक एजेंडे खड़े हो जाते है। एक शासक सुधारक नहीं बन सकता और एक सुधारक शासक नहीं बन सकता। इनकी अलग अलग भूमिका है और इनको मिलकर काम करना चाहिए।
प्रश्न : शादी के महत्व के बारे में हमे बताएं।
श्री श्री रवि शंकर : मुझे इस विषय में अनुभव नहीं है!
शादी एक महत्वपूर्ण पद्धती है जो तुम्हे जीवन में किसी को स्वीकार करके आगे बढ़ना सिखाती है। इससे तुम बाँटना, दूसरे की देखभाल करना और अपनी देखभाल कराना सिखते हो।
"साधना का अर्थ है हर तरह के प्रयत्न से विश्राम"
ध्यान में कोई प्रयत्न नहीं है।
हम जो भी प्रयत्न से प्राप्त करते हैं, वो हमारे अहंकार को बढ़ाता है। जो तुम नहीं कर सकते, तुम्हें करने की आवश्यकता नहीं है। कोई कहे कि तुम्हें ४० दिन तक उपवास रखना है। तुम्हारा शरीर इसे सहन नहीं कर सकता। ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। पर अगर तुम सोचो कि तुम कुछ नहीं कर सकते, तो तुम आलसी हो जाओगे। तब भी तुम कुछ नहीं पाओगे।
"आध्यात्म, इस नये युग की भाषा है"
बैंगलोर आश्रम, २ सितंबर २००९
श्री श्री ने आज कहा -
प्रश्न : मैं अपने प्रदेश में एक सम्मानित, प्रतिष्ठित और जाना माना, उच्च पदाधिकारी हूं। जब मैं किसी अन्य जगह जाता हूं तो कभी कभी मुझे लगता है कि वहां मेरा महत्व कुछ कम है। मैं अपनी identity पर प्रश्न चिह्न लगा लेता हूं। इससे छुटकारा कैसे पाऊं?
श्री श्री : तुम्हें पता है, तुम्हें एक सूट पहनना आना चाहिये – और उसे उतारना भी! अपने घर में सब राजा होते हैं। अकिंचन रहना सीखो – मैं कुछ नहीं हूँ। जीवन की पूरी यात्रा है, ‘मैं कुछ हूँ’ से ‘मैं कुछ नहीं हूँ’ और फिर ‘मैं ही सब हूँ।’ आमतौर पर जीवनयात्रा होती है, ‘मैं कुछ हूँ’ से ‘मैं कुछ नहीं हूँ’ और फिर, ‘मैं कुछ हूँ’!
सत्संग में बैठो। अपने वजूद को घुल जाने दो। अपने वजूद को घुलकर जाने देना, समाधि है, आनंद है। तुम जान जाओगे कि तुम अमर हो।
प्रश्न : Art of Living संस्था के लिये आपका क्या vision है?
श्री श्री : आध्यात्म, इस नये युग की भाषा है। तुम अपना vision खुद बनाओ। मैं कहूंगा कि तुम दृष्टा बन जाओ, अपने दृश्य खुद बनाओ। परमात्मा तुम्हें नींद देंगे, स्वप्न तुम खुद बनाओ।
प्रश्न : अगर १ से १०० तक की rating करें और एक पत्थर का स्तर शून्य है और मनुष्य का १००, तो बीच के बाकी जीवों का क्या स्तर तय करेंगे?
श्री श्री : Rating की क्या आवश्यकता है? सब कुछ उस एक का है। उसका ही अंग है। उस एक ने ही ये सभी अनंत रूप लिये हैं। शून्य और १००, सभी में वही है। एक पत्थर में भी जड़ता और चैतन्य होगी। ब्रह्म में जड़ और चैतन्य दोनों का ही समन्वय है। वे ब्रह्म का अंग हैं।
भगवान श्री कृष्ण, भगवद्गीता में कहते हैं, ‘माया भी मुझ से ही है। समस्त विश्व मुझ में ही है। फिर भी मैं किसी में नहीं हूं।’ भगवद्गीता की philosophy भ्रामक लग सकती है। बिना सत्य के अनुभव के philosophy केवल कुछ सिद्धांत मात्र हैं। अपने आप का सत्य अनुभव करने के लिये तुम अपने भीतर, गहरे उतर जाओ।
प्रश्न : मैं अपनी नकरात्मक भावनाओं से ज्ञान के द्वारा कैसे छुटकारा पा सकता हूं? अगर मैं उन्हें हटाने के लिये प्रतिबद्ध हो जाऊं तो वे मेरा विरोध करेंगे। अगर मैं उनका विरोध ना करूं, तो वे यथावत रहेंगे।
श्री श्री : नकरात्मक भावनाओं के साथ लड़ो मत, और उनसे मित्रता भी मत करो। युक्ति से, सांस से, सही दृष्टिकोण से, सभी नकरात्मकता से छुटकारा हो सकता है। अष्टावक्र गीता में कहा गया है, ‘सही तरीके से मन के ऊपर जाओ।’
प्रश्न : शिव जी के परिवार में हरेक का वाहन, जीव जगत में आपस में दुश्मन है। एक बैल है, चूहा है, मोर इत्यादि है – फिर भी वे आपस में शांते से रहते है! ऐसा कैसे?
श्री श्री : शिव का शांत, अद्वैत तत्व, हरेक को संग लाता है, और सद्भावना लाता है।
प्रश्न : जिज्ञासा का सार तत्व क्या है?
श्री श्री : तुम्हारा प्रश्न ही जिज्ञासा के सार तत्व का उदाहरण है। जो तुम पूछ रहे हो, वही इसका उत्तर है। ये तो ऐसा ही है जैसे कोई पूछे कि ध्वनि क्या है?

"गुरु पूर्णिमा २०१० - गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर का संदेश

"गुरु पूर्णिमा २०१० - गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर का संदेश"
हार्टफ़ोर्ड, अमरीका
वर्ष की १२-१३ पूर्णिमाओं में से वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध को समर्पित है (उनके जन्म और बुद्धत्व को), ज्येष्ठ पूर्णिमा पृथ्वी माता को समर्पित है, तथा आषाण पूर्णिमा गुरुओं की स्मृति में समर्पित है।
इस दिन शिष्य अपनी पूर्णता में जागृत होता है, और इस जागृत अवस्था में वह आभार प्रकट किये बिना रह ही नहीं सकता। ये आभार द्वैत का ना होकर, अद्वैत का है। ये एक नदी नहीं है जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा रही है, ये एक सागर है जो अपने भीतर ही रमण करता है। कृत्ज्ञता, गुरु पूर्णिमा पर पूर्णता की अभिव्यक्ति है।
गुरु पूर्णिमा के उत्सव का ध्येय यह देखना है कि पिछले एक वर्ष में जीवन में कितना विकास हुआ है। एक साधक के लिये गुरु पूर्णिमा का दिन नव वर्ष के दिन की तरह महत्वपूर्ण है। इस दिन अवलोकन करें कि साधना के पथ पर आप ने कितनी तरक्की की है, और अगले वर्ष में जो करना चाहते हैं उसके लिए संकल्प लें। जैसे पूर्णिमा का चँद्रमा उदय और अस्त होता है, आभार के अश्रु बहते हैं। अपने अनंत विस्तार में विश्राम करें।
आप जानते हैं कि हमारे शरीर में लाखों कोषिकायें हैं, और हर एक कोषिका का अपना जीवन क्रम है। कई कोषिकायें प्रतिदिन जन्म ले रहीं हैं, और कई कोषिकायें मर रही हैं। तो, आप एक चलता फिरता शहर हैं! इस पृथ्वी पर कितने ही शहर हैं, और ये पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगा रही है। उसी तरह आपके भीतर कितनी ही कोषिकायें और जीव जंतु हैं और आप चलायमान हैं। आप एक चलता फिरता शहर हैं। जैसे एक मधुमक्खी के छत्ते में कई मधुमक्खियां आकर बैठती हैं, पर रानी मक्खी चली जाये तो सभी मधुमक्खियां छत्ता छोड़ देती हैं। रानी मक्खी की ही तरह, हमारे शरीर में एक परमाणु है। अगर वो ना हो, तो बाकी सब चला जाता है। वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, वही आत्मा है, ईश्वर है। वो सब जगह व्याप्त है, फिर भी कहीं नहीं है।
तुम भी वही हो। वही परमात्मा है और वही गुरु तत्व है। जैसा मातृत्व होता है, पितृत्व होता है, गुरुत्व भी होता है। आप सब भी किसी ना किसी के गुरु बनो। जाने अनजाने आप ऐसा करते ही हैं,लोगों को सलाह देते हैं, उन्हें रास्ता दिखाते हैं, प्रेम देते हैं और देखरेख करते हैं। पर ऐसा करने में अपना १०० प्रतिशत दें और बदले में उनसे कुछ ना चाहें। यही है अपने जीवन में गुरुत्व को जीना, अपनी आत्मा में जीना। आप में, परमात्मा में, और गुरु तत्व में कोई अंतर नहीं है। ये सब उस एक में ही घुल जाना हैं, लुप्त हो जाना है।
ध्यान का अर्थ है विश्राम करना और उस अतिसूक्ष्म परमाणु में स्थित रहना। तो उन सब चीज़ों के बारे में सोचें जिनके लिये तुम आभारी हो, और जो चाहते हो वो मांग लो। और सब को आशीर्वाद दो। हमें बहुत कुछ मिलता है, पर लेना ही काफ़ी नहीं है। हमें देना भी चाहिये। उन्हें आशीर्वाद दें, जिन्हें इसकी ज़रूरत हो।

चेतना के विस्तार के साधन हैं संगीत, ज्ञान और मौन"

"चेतना के विस्तार के साधन हैं संगीत, ज्ञान और मौन"
श्री श्री रवि शंकर ने क्या कहा..
न्यूयार्क के गणेश मंदिर में दिये गये व्याख़्यान के कुछ अंश
चेतना के विस्तार के लिये तीन मुख्य साधन हैं - संगीत, ज्ञान और मौन।
ज्ञान, तर्क-बुद्धि से जुड़ा है। रोज कुछ क्षण मौन रखने के अभ्यास से, हम अपनी सजगता का स्तर बढ़ा सकते हैं। बुद्धि के स्तर को उन्नत करना यानि पात्रता बढ़ाना है, और यह हो सकता है कुछ ही क्षण मौन में रहने से। बस इतना ही प्रयास चाहिये यह हासिल करने के लिये।
संगीत का उद्देश्य है मौन की ओर ले जाना, और ज्ञान का लक्ष्य है आश्चर्य की ओर ले जाना।
सचेतन
अब क्या हो रहा है यहाँ? (हँसी) सचेतन होने का आभास, ठीक है ना? मैं कुछ नहीं कह रहा हूँ और आप सब लोग कुछ पकड़ने के लिये इन्तज़ार कर रहे हैं। क्या आप को इस बात का आभास हो रहा है? किसी चीज़ को पकड़ने की अपेक्षा, अपने ध्यान को प्रतीक्षा की ओर लगाने को सचेतन होना कहते हैं, और यह है ध्यानस्थ सजगता।
क्या आप समझ रहे हैं मैं क्या कह रहा हूँ? तो जब आप सचेतन होते हैं तब क्या होता है? आप में एक बदलाव आने लगता है -आप दृश्य से हट कर दृष्टा की ओर जाने लगते हैं। अब आप ही दृष्टा और दृश्य हैं। आप मुझे देख रहे हैं और समझने की कोशिश कर रहे हैं कि मैं क्या कह रहा हूँ।
अब फिर से अपना ध्यान खुद की ओर ले जाइये। आप बैठे हैं, पढ़ रहे हैं..
अपना ध्यान अब अपनी साँस पर ले जाइये। आप्के मन में कुछ संवाद चल रहा है अपने आप से - ‘हाँ’ या ‘ना’ के रूप में। समझ रहे हैं न मेरी बात?
दृश्य से हट कर दृष्टा की ओर जाना योग द्वारा, उज्जई साँस और ध्यान से संभव होता है। इससे आपके भीतर एक करुणा का सागर उमड़ पडता है। इससे बुद्धि तीक्ष्ण और सचेत होती है। आप अधिक सजग और सूक्ष्म आभासी हो जाते हैं, और आपका मैत्रीभाव और आत्मविश्वास और अधिक बढ़ता है।
विश्वास के तीन स्तर
विश्वास के तीन स्तर होते हैं। पहला जब आप अपने में विश्वास रखते हैं तभी दूसरों में भी विश्वास रख सकते हैं। यह समाज में, लोगों की अच्छाई के प्रति विश्वास है। देखिये, यहाँ कितने अच्छे लोग बैठे हैं! ( हँसी)।
फिर, उसके प्रति जिसे देख नहीं सकते पर महसूस कर सकते हैं। यह बात समझना कठिन है पर इसे नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता।
और अंत में, दैवी शक्ति या ईश्वर में विश्वास। पर ईश्वर में विश्वास होने से पहले दुनिया के लोगों में विश्वास करना होगा। इस दुनिया में हम जितना सोचते हैं, उससे कहीं अधिक अच्छाई है। यहाँ केवल थोड़े से, गिनती के सिरफिरे, राह से भटके, तनाव से भरे लोग हैं, जो तरह तरह के हिंसात्मक कार्यों में लगे हुए हैं। साधारण तौर पर दुनिया में अच्छाई ही है।
आध्यात्म का पहला नियम
हम अधिकतर दुनिया को दोष देते हैं और उसके फलस्वरुप खुद को भी दोषी ठहराने लगते हैं।
आध्यात्म का पहला नियम है- स्वयं को दोषी मत मानो और न ही दूसरों को।
क्या आपने यह पहल कदम ले लिया है? क्या आप यह कर सकते हैं? इसके बिना आगे बढ़ना बेकार है। तो, ना खुद को दोष दो और ना ही अन्य किसी को। फिर देखो क्या परिवर्तन होता है खुद में - एक उत्साह और शक्ति उभर आती है! मेरे कहने का यह मतलब नहीं है कि तुम अपने दोषों को छुपाओ। गलती को जान कर उसे दूर करने की चेष्टा करो। अपनी गलती को मान कर आगे बढ़ते जाओ। यह बात अपने आप को दोषी मानते रहने से भिन्न है। खुद में और समाज की अच्छाई में विश्वास रखो। इस पूरी सृष्टि के मूल सार में विश्वास रखो।
क्या आप सेलफोन इस्तेमाल करते हैं? इसको चलाने के लिये सिम कार्ड लगता है। अगर सिम कार्ड नहीं है तो नंबर लगाये जाने पर भी किसी से बात नहीं कर पाओगे। इसी तरह हमारी कई प्रार्थनायें भी नहीं पहुँच पाती हैं और न ही उनका फल मिल पाता है, क्योंकि मेरे भाई तुमने सिम कार्ड नहीं डाला!
अब सिम कार्ड लगाने पर भी अगर कहीं ज़मीन के नीचे के तल हो, तो सिग्नल नहीं मिलता है। फिर बैटरी की भी ज़रूरत होती है। तो सिम कार्ड, सिग्नल और बैटरी हो, तो तुम किसी से बात कर सकते हो। उसी प्रकार से हमारी अपनी चेतना से जुड़ने के लिये, मन शांत, शुद्ध और स्थिर होना चाहिये।
ज्ञान, संगीत और मौन - ये तीन साधन हैं जीवन में पूर्णता लाने के लिये। तब हमारी प्रार्थना सुनी जाती है।
भावपूर्वक गाते रहो। श्रद्धा, विशवास, मौन और ज्ञान से प्रेरित प्रार्थना जरूर फलित होती है।
क्या आप सब यहीं हैं?
यह आत्मा क्या है?
हम इतना सुनते हैं आत्म साक्षात्कार के बारे में पर यह आत्मा है क्या?
क्या आप जानना चाहते हैं? आप में से कितनों ने भौतिक विज्ञान (फ़िज़िक्स) और रासयनिक विज्ञान (केमिस्ट्री) पढ़ा है? सबको भौतिक विज्ञान के विषय में थोड़ी जानकारी अवश्य होनी चाहिये। हमारा शरीर करोड़ों कोशिकाओं से बना है और प्रत्येक कोश में जीवन है। प्रतिदिन नयी कोषिकायें बनती और मिटती रहती हैं। जब रगड़ कर नहाते हो तो चमड़ी पर से मरी कोषिकायें धुल जाती हैं। तुम एक अकेले व्यक्ति नहीं हो। हमारे ऋषि मुनियों ने कहा है कि तुम एक ‘पुरुष’ हो, यानि कि चलती फिरती नगरी हो। संस्कृत में ‘पुर' का अर्थ नगरी होता है। हमारी आत्मा इस नगरी यानि हमारे इस चलते फिरते शरीर में वास करती है। और इस चलते फिरते शरीर में भी अनेक जीव जन्तु घूम रहें हैं साथ साथ। जानते हैं, हमारे शरीर की केवल आँतों में ही ५०,००० कीटाणु रहते हैं?!
तो, यह शरीर तो प्रतिदिन बदल रहा है, फिर भी इसमें एक कुछ है जो नहीं बदल रहा। यह समझने के लिये मधुमक्खी के छत्ते को जानना होगा। आपने देखा है कभी छत्ता? उसे थामे रखने वाला आधार कौन है? रानी मधु मक्खी। यदि रानी उड़ जाती है तो सब नष्ट हो जाता है।
वैसे ही हमारा शरीर भी अनेक परमाणुओं से बना है और इसमें एक रानी मधुमक्खी छुपी बैठी है। प्रत्येक शरीर मधु से भरे एक छत्ते के समान है। अपने शरीर रूपी छत्ते में छुपी रानी को ढ़ूँढ निकालो। यही ध्यान है। करोड़ों परमाणु जो हमारे शरीर में मौजूद हैं वैसे ही हाथी या अन्य प्राणी में भी हैं। बाहरी शरीर की बनावट का कोई महत्व नहीं है। अंदर वास करती आत्मा सबमें एक है और नित्य है, कभी बदलती नहीं। यह ज्ञान होने पर तुम्हें कुछ भी नहीं सता सकता है, तुम्हें सब अपने लगने लगेंगे, कोई बात तुम्हें विचलित नहीं कर पायेगी तब, और यही आध्यात्म का सार है।
"मन आखिर है क्या?"
प्रश्न : आर्ट आफ़ लिविंग के एक शिक्षक ने कहा था कि, ‘ईशवर, उत्तम है। ईश्वर ने हमें बनाया है, इसलिये हम भी उत्तम हैं।’ यहाँ तक तो बात ठीक लगती है। पर जब हम उत्तम हैं, तो क्या एक इन्जीनियर का काम भी उत्तम नहीं होना चाहिये? पर ऐसा तो नहीं होता।
श्री श्री रवि शंकर : प्रश्न उत्तम है, और उत्तर और भी उत्तम है। सृष्टि में हरेक चीज़ उत्तमता के एक स्तर से दूसरे स्तर पर अग्रसर हो रही है। दूध उत्तम है, और जब वह दही बन जाता है, दही भी उत्तम है। आप दही से क्रीम निकाल सकते हैं, और वह भी उत्तम है। फिर आप मक्खन बनाते हैं और वह भी उत्तम है। ये एक दृष्टि हुई। दूसरी दृष्टि से देखें तो, दूध खराब हो गया तो आप ने उस से पनीर बनाया। जब दही खराब हो गया तो आप ने उस में से मक्खन निकाला। ये देखने का दूसरा तरीका हुआ। आप की दृष्टि पर निर्भर है कि आप कैसे देखें। अनुत्तमता से ही उत्तमता को महत्व मिलता है। है कि नहीं? आप किसी चीज़ को उत्तम कैसे कह सकते हैं?
किसी भी वस्तु को दोष रहित तभी समझ सकते हैं, जब कहीं पर दोष देख चुके हैं। इसलिये दोषयुक्त वस्तु का होना भी आवश्यक है, किसी दोषहीन उत्तम चीज़ को समझने के लिये। तो, दोष ही उत्तम को उत्तम बनाते हैं!
प्रश्न : मैं सोच रहा हूँ कि ये मन आखिर है क्या? क्या यह हमारे दिमाग में किसी एक जगह में है या यह पूरे जगत में व्याप्त है? हाँ, मैं यह भी कहना चाहता हूँ आप सर्वोत्तम हैं!
श्री श्री रवि शंकर : मन, ऊर्जा का स्वरूप है जो कि पूरे शरीर में व्याप्त है। हमारे शरीर के हर कोष से ऊर्जा प्रसारित होती है। आपके आस पास, पूरी ऊर्जा को सम्मिलित रूप से मन कहते हैं। मन, दिमाग के किसी एक भाग में नहीं स्थित है, अपितु शरीर में सभी जगह व्याप्त है।
चेतना विषयक ज्ञान बहुत गहरा है। हमें कभी कभी इस गहराई में जाना चाहिये। जितना गहराई में जायेंगे, उतना ही इसे समझ सकेंगे। जितना समझोगे, उतने ही चकित होते जाओगे! वाह!
तुम्हें पता लोगों का एक भूतिया हाथ होता है, जिसका अर्थ है कि सच में उनका हाथ नहीं है, पर उन्हें फिर भी उस हाथ में संवेदना होती है, पीड़ा और खुजली होती है! जो लोग अपना हाथ या पैर किसी दुर्घाटना वश खो देते हैं, उन्हें बाद में कभी कभी उस खोये हुये हाथ या पैर के अस्तित्व का अभास होता है। हालांकि वो सचमुच नहीं होता है। इस से ये साबित होता है कि मन, शरीर के किसी एक भाग में स्थित ना होकर, पूरे शरीर के इर्द गिर्द रहता है। शरीर का आभा-मण्डल ही मन है। हम सोचते हैं कि मन, शरीर के भीतर है, पर सत्य इसका उल्टा है - शरीर, मन के भीतर है। शरीर एक मोम्बत्ती की बाती की तरह है, और मन इसकी ज्योति है।
प्रश्न : गुरुजी, हम सब यहाँ मौन की गहराई की अनुभूति को समझने आये हैं। मुझे यहाँ बहुत अच्छा भी लग रहा है और मैं एकान्त व मौन में रहना पसंद करने लगा हूँ। पर जब मैं वापस ऑफ़िस या अन्य सामाजिक जगह पर जाऊँगा तो क्या बहुत मौन रखना वहाँ ठीक होगा?
श्री श्री रवि शंकर : संतुलन! जीवन में संतुलन रखो। किसी भी चीज में अति करना ठीक नहीं है। बहुत बोलना भी ठीक नहीं और बहुत मौन भी ठीक नहीं है तुम्हारे लिये इस वक्त।
प्रश्न : हम जानते हैं कि जीवन में भाग्य महत्व रखता है। जीवन में सफलता और असफलता भाग्य से ही संबंधित हैं तो फिर हमारा कार्य भार क्या रह जाता है जीवन में?
श्री श्री रवि शंकर : तुम अपना भाग्य खुद बनाते हो। तुमने कल जो किया वह आने वाले कल का भविष्य होगा और तुम आज जो करोगे वह आने वाले कल के बाद के दिनों का भाग्य बनेगा।
प्रश्न : प्राचीन भारत का इतिहास भरा पड़ा है सिद्ध ज्ञानियों और योगियों की गाथाओं से जिनमें थीं अद्‍भुत अलौकिक शक्तियाँ और सजगता। पर इन कहानियों को कैसे समझा जाये- केवल पौराणिक कहानियों के रूप में या फिर कोई संकेत है कि हम सभी में इस दैवी शक्ति के छुपे होने की सम्भावना है?
श्री श्री रवि शंकर : क्या आप को सबसे पहले उड़ने वाले हवाई जहाज़ के बारे में पता है? सबसे पहले हवाई जहाज़ किसने उड़ाया था? (जवाब आया - राइट ब्रदर्स) यही हम सब किताबों में भी पढ़ते आ रहे हैं, पर यह गलत है। राइट ब्रदर्स से ५० साल पहले, बंगलोर के सुब्रय शास्त्री ने यह कार्य किया था।
वे ध्यान और मौन के बाद एक योगी से मिले थे जिनकी सहायता से और गहरे ध्यान में जाने के बाद उन्हें विमान बनाने का ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होनें विमान बनाये। उसने ‘वैमानिक शास्त्र’ नामक पुस्तक भी लिखी थी और १८०० में एक पारसी व्यक्ति के साथ मिलकर पहला विमान उड़ाया था। पारसी लोग, ईरान से आकर भारत में बसने वाले लोग हैं जो जोरोस्ट्रियन धर्म को मानते हैं। उस पारसी व्यक्ति से मिली आर्थिक सहायता से वह पहला प्लेन बना था जिसमें उन दोनों ने उड़ान भरी थी चौपाटी पर मुम्बई (बॉम्बे) के समुद्र किनारे पर। यह खबर लंदन टाइम्स अखबार में भी छपी थी। परंतु अंग्रेजी हुकूमत के अंतर्गत दोनों को जेल में डाल दिया गया था, और विमान के सब नक्शे भी जब्त कर लिये गये थे। अभी हाल ही में टेलीविजन पर यह खबर दिखायी गयी थी लंदन के अखबार की छवि सहित, जिसमें विमान बनाने के नक्शे के साथ यह खबर छपी थी।
भारद्वाज वैमानिक शास्त्र’ विमान विज्ञान, जो कि ॠषि भारद्वाज द्वारा लिखा गया था उसमें पाँच अलग अलग तरह से विमान बनाने के तरीके आज भी मौजूद हैं। ऋषि भारद्वाज ने अलग अलग विमनों की इंजिन रचना बताई है - सीधा उड़ने वाले विमान हेलीकॉप्टर जैसे और अन्य विमान जो हवाई पट्टी पर दौड़ने के बाद उड़ान भरते हैं उन के लिये भी।

Thursday 1 July 2010

मैं जहाँ भी जाता हूं सत्संग होता है, उत्सव होता है।

"केवल आध्यात्म और ज्ञान तुम्हारे जीवन को आकर्षक बना सकता है"
प्रश्न : गुरुजी, आप कहां गये थे और वहां आपने क्या किया?
श्री श्री : मैं जहाँ भी जाता हूं सत्संग होता है, उत्सव होता है।

प्रश्न : पिछले चार सालों से मैं एक लड़की से प्यार करता हूँ। हाल ही में एक गलतफ़हमी की वजह से उसने मुझसे रिश्ता तोड़ दिया है। मैं उसके साथ विवाह करना चाहता हूँ, पर मैं नही जानता कि इसके लिये क्या करूँ।

श्री श्री : जब तुम किसी इच्छा की पूर्ति के लिये बेचैन होते हो तो तुम्हारा मन उत्तेजित हो जाता है। तुम्हारा व्यक्तित्व का आकर्षण कम हो जाता है। तुम्हें अपने भीतर की गहराई में जाना होगा। तुम्हें शांत और केन्द्रित होना होगा।तुम्हें अपने आप को खुश, आकर्षक, मज़बूत और सूक्ष्म बनाना है। किसी दुखी व्यक्ति के साथ कौन रहना चाहता है? पहले अपने दुख से छुटकारा पाओ।
जो बीत गया उसे जाने दो। बीते हुये जीवन से शिक्षा लो और आगे बढ़ो। तुम्हें मज़बूत, सौम्य और शांत बनना है।
जब तुम ध्यान, प्राणायाम, सुदर्शन क्रिया और योगासन करते हो, तो तुम तुरंत ही फ़र्क देखोगे। जब फ़र्क आयेगा तो तुम पाओगे कि तुम्हारी इच्छायें पूरी होने लगी हैं।
जब तुम किसी इच्छा की पूर्ति के लिये बहुत बेचैन होते हो, तो दो ही विकल्प रहते हैं – आत्महत्या या योग में विश्राम। केवल आध्यात्म और ज्ञान ही तुम्हारे जीवन में आकर्षण ला सकता है। एक योगी ऐसा व्यक्ति होता है जो अपनी इच्छायें तो पूरी कर सकता है, औरों की इच्छायें भी पूरी कर सकता है।

प्रश्न : गुरुजी, मैं समझना चाहता हूँ कि लोग कहते हैं कि मृत्यु के बाद हमें अपनी आंखें, शरीर के अंग, इत्यादि दान कर देने चाहिये। हम कैसे दान कर सकते हैं, जब ये शरीर ही हमारा नहीं है?

श्री श्री : अपनी आंखों या शरीर के अंगों का दान देना ठीक है। ये जानो कि जब तुम नहीं रहोगे, तो ये शरीर तुम्हारा नहीं रहेगा। तुम्हें पता है, विदेशों में लोग ये भी तय कर लेते हैं कि वो मरने के समय क्या कपड़े पहनेंगे, कहाँ दफ़नाये जायेंगे। वे अपने शरीर से बहुत आसक्त रहते हैं। ऐसी सोच भय को जन्म देती है। तुम क्या दान दे रहे हो ये महत्व नहीं रखता क्योंकि वो तुम्हारा है ही नहीं। तो, इसके बारे में इतना सोचने की और चिंता करने की ज़रूरत नहीं है।

प्रश्न : गुरुजी, कभी कभी ध्यान करने में मुश्किल होती है। मुझे क्या करना चाहिए?

श्री श्री : कभी कभी तुम्हें लगता है कि तुम्हारे मन में बहुत सारे विचार आ रहे हैं। अगर तुम चाहते हो कि तुम्हारा मन शांत हो, तो तुम्हें अभ्यास और वैराग्य करना होगा। अभ्यास और वैराग्य से तुम ध्यान कर पाओगे। मन अगर ज़रुरत से ज़्यादा महत्वाकांक्षी हो तो भी मन में ज़्वरता रहती है। रोज़ १५-२० मिनट ज्ञान सुनो और फिर साधना का अभ्यास करो, तुम पाओगे तुम सहज ही ध्यान हो रहा है।
"जो विश्वास शक से होकर गुज़रता है और फिर भी बना रहता है, वही सच्चा विश्वास है"
मुझे एक घटना याद है जो पिताजी मुझे बताते थे। मेरे दादीजी ने दादाजी को अपना साढ़े दस किलो सोना महात्मा गांधी को देने के लिए दिया और दादाजी २० साल तक महात्मा गांधी के साथ रहे। तुम्हें पता है, भारतीय महिलायें सोने से बहुत प्रेम करती हैं इसलिये विवाह इत्यादि उत्सवों में उन्हें आमतौर पर उपहार में सोने के आभूषण दिये जाते थे। मेरी दादीजी के पास साढ़े दस किलो सोना था। सोचो यह उस समय में कितना होगा! एक सोने की चेन को छोड़कर उन्होंने बाकी सब सोना महात्मा गांधी को दे दिया जब उन्होंने भारत का स्वतंत्रता संग्राम शुरु किया। कुछ देने के लिये कोई तुम्हें मजबूर नहीं करता, पर जब तुम कुछ देते हो तो तुम्हें अपने भीतर एक संतोष का अनुभव होता है।
मैं कहता हूँ अपने जीवन में दो बातें आवश्यक हैं – एक तो अधिक मुस्कुराओ और जितना हो सके उतना सेवा कार्य करो।

प्रश्न : अहंकार और आत्मविश्वास में क्या संबंध है?

श्री श्री रवि शंकर :किसी और की उपस्थिति में सहज ना होना अहंकार है। तुम कहीं भी और किसी के साथ भी सहज हो तो यह आत्मविश्वास है। अहंकार का इलाज है - सहजता। सहज होना और आत्मविश्वास होना एक साथ ही होता है। ये आत्मविश्वास से अलग नहीं किया जा सकता। जब तुम में आत्मविश्वास होता है तो तुम सहज होते हो। अगर तुम सहज हो तो आत्मविश्वास भी होगा।

प्रश्न : क्या खुश होने के लिये धन का होना आवश्यक है?

श्री श्री रवि शंकर : इसमें कोई शक नहीं है कि जीवन की रोज़मर्रा की आवश्यकताओं के लिये तुम्हें कुछ धन की आवश्यकता है, पर धन से तुम खुशी खरीद नहीं सकते हो। खुशी आती है ज्ञान से।

प्रश्न : आप हर अवस्था में मुस्कुरा कैसे लेते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : मुस्कुराहट हमारा brand mark है। मुस्कुराहट हमारी पहचान है। अगर तुम किसी को देखो जो मुस्कुरा नहीं रहा है और कहे कि उसने Art of Living कोर्स किया है, तो उसकी बात पर यकीन मत करना। मुझे यकीन है कि यहां मौजूद लोगों में जिन्होंने भी सही माइने में ये कोर्स किया है, मेरी बात से सहमत होंगे।

प्रश्न : जीवन में भीतरी संतुष्टि अनुभव करने के लिये सेवा का क्या योगदान है?
श्री श्री रवि शंकर : जीवन में हमारे पास कोई ध्येय होना चाहिये। मेरा ध्येय है अधिक से अधिक लोगों के जीवन में खुशी लाना। अगर हम बैठ कर हर समय सिर्फ़ अपने बारे में ही सोचते रहें तो हम विषादग्रस्त हो जायेंगे। हमें देखना चाहिये, ‘मैं सेवा कैसे कर सकता/सकती हूँ? मैं दूसरों के लिये उपयोगी कैसे हो सकता/सकती हूँ?’ ये विचार बहुत उपयोगी है। बहुत, बहुत, बहुत उपयोगी है।

Art of Living एक मंच प्रदान करता है जहाँ सब मिल कर सेवा कार्य कर सकें। तुम्हें पता है, ‘जब यूनाईटेड नेशन्स ने वृक्षारोपण के लिये ‘Stand up and take action’ का एलान किया तो Art of Living के सदस्यों नें विश्व भर में ५५० लाख वृक्ष लगाये।
हम सब मिलकर कोई सेवा कार्य कर सकते हैं। हिंसा कम कर सकते हैं, तनाव कम कर सकते हैं, अपनेपन का भाव फैला सकते हैं, और प्रेम और शांति की सकारात्मक उर्जा फैला सकते हैं। हम सब मिलकर ये करेंगे। क्या हम सब लोग प्रतिबद्ध हैं ऐसा करने के लिये? (सभी श्रोता एक स्वर में हाँ कहते हैं।’)

प्रश्न : अद्वैत का आधार क्या है?
श्री श्री रवि शंकर : अद्वैत quantum physics है। Quantum physics कहती है कि सभी अणु एक ही स्पंदन की लहर हैं। इस तरह पूरा ब्रह्माण्ड एक ही पदार्थ से बना है – मैं, तुम, वो, सभी लोग और सभी कुछ उसी एक तत्व से बना है। और उस तत्व का स्वभाव है - आनंद। अद्वैत यही कहता है। उसके अनुभव की एक झलक मात्र मिल जाने से ही तुम में इतनी शक्ति और स्थिरता आ जाती है कि कुछ भी तुम्हें हिला नहीं सकता, कोई तुम्हारी मुस्कुराहट नहीं छीन सकता।

प्रश्न : आपको इतनी हिम्मत कहाँ से प्राप्त होती है?

श्री श्री रवि शंकर: हिम्मत कहाँ से प्राप्त होती है? अद्वैत से। ये जानने से कि तुम में ऐसा कुछ है जो बदल नहीं रहा है। मौन, शांत चित्त और ध्यान के अनुभव से तुम्हें भीतर से बहुत हिम्मत मिलेगी।

प्रश्न : Art of Living बहुत बढ़िया काम कर रहा है। क्या ३० प्रतिशत लोगों के विषादग्रस्त होने पर और आने वाले दशक में यह संख्या ५० प्रतिशत होने की संभावना में मानव जाति के लिये कोई उम्मीद रह जाती है? क्या कोई आशा है?

श्री श्री रवि शंकर : हां, और हम सभी को इसके लिये काम करना है। तुम्हें पता है कि हमने शुरुवात भारत में एक छोटे से गांव से, ५० लोगों के साथ की थी। हमारे पास कोई साधन नहीं थे, कार्यकर्ता नहीं थे, पर हमारे पास एक दृष्टि थी – हमें विश्व में बहुत लोगों तक पहुँचना है। इस तरह इन तीस सालों में हम लाखों लोगों तक पहुँचें हैं। ये संभव है। मोबाइल की पंहुच समस्त विश्व में हो गई है। अगर मोबाइल समस्त विश्व तक पहुँच सकता है तो क्या ज्ञान और करुणा समस्त विश्व में नहीं पहुँच सकते हैं? हमें प्रयास करना होगा। ठीक है?

प्रश्न : मैंने विश्वास खो दिया है, मैं उसे दोबारा कैसे प्राप्त करूं?

श्री श्री रवि शंकर : विश्वास को दोबारा प्राप्त करने के लिये कोई प्रयास मत करो। अपने हृदय की सुनो। विश्वास कभी खो नहीं सकता है। जितना शक कर सकते हो करो। सत्य हमेशा शक पर विजयी होता है। सत्य इतना मज़बूत होता है कि शक उसे नष्ट नहीं कर सकता है। तो शक करना अच्छा है। जो विश्वास शक से होकर गुज़रता है और फिर भी बना रहता है, वो सच्चा विश्वास है।
तुम में से कितने लोगों ने अभी तक भारत नहीं देखा है? तुम में से कितने लोग भारत देखने आना चाहते हो? ओह! बढ़िया है! यहाँ से हम एक टोली की भारत यात्रा की व्यवस्था करेंगे। भारत में भी तुम्हारा अपना एक घर है। तुम सब भारत आओ, एक हफ़्ता, दस-पन्द्रह दिन...जो भी तुम्हारे लिये सम्भव हो। वहाँ आकर तुम सब सेवा कार्यों की एक झलक देख सकते हो।
अंहकार का अर्थ है किसी एक पहचान में फंस जाना
प्रश्न: विकास के आधुनिक सिद्धांत (Modern theory of evolution) के बारे में आपके क्या विचार हैं? अगर यह सत्य है तो आत्माएं किस चरण में आती हैं? उससे पहले आतमाओं की क्या स्थिति होती है?

श्री श्री रवि शंकर: आधुनिक सिद्धांत विकसित हो रहे हैं उनके अनुसार सब कुछ कहीं से शुरु हुआ है मैं इसे linear understanding कहूँगा लेकिन एक spherical thinking भी है जिसकी यहाँ कमी है ओरिएंट में sperical thinking रही है पच्छम में linear understanding सबका कहीं से शुरु होना आवश्यक है एक एडम और ईव होने ही चाहिए जिनकी सब संतान हैं इसके आधार पर हर कोई एक दूसरे का भाई यां बहिन है तो फिर कोई किसी से शादी कैसे कर सकता है? इस तरह से शादी ही एक अपराध हुआ अगर ईश्वर एक एडम और ईव बना सकते हैं तो वह ऐसे और भी बना सकते थे और फिर ईश्वर ने ऐसा ज्ञान का फल क्यों बनाया जिसे खाने के लिए मना ही करना था? इस तरह से हमारी सोच बहुत संकुचित है और हमे व्यापक समझ अपनाने की आवश्यकता है हमे गोलाकार सोचने की आवश्यकता है शुरुआत में किसी एक जीव का नहीं बल्कि सबकी, सब वस्तुयों की एक साथ रचना हुइ अगर मैं तुमसे पूछ्ता हूँ कि टैनिस की गेंद का प्रारंभ बिन्दु कौन सा है तो तुम्हारा क्या उत्तर होगा? गेंद पर हर एक बिन्दू पहला है, और अंतिम भी प्राचीन लोगों की यही सोच रही तभी उन्होने कहा, "संसार आदि है और अनंत भी", अर्थात इसकी ना शुरुआत है और ना ही अंत आत्मा की ना कोई शुरुआत है और ना अंत जिस कारण ब्रह्मांड का अस्तित्व है , उस दिव्यता की ना शुरुआत है और ना ही अंत तीनो एक ही हैं यही अद्वैत का सिद्धांत है कि सब कुछ एक ही तत्व से बना है यही theory of relativity है String theory और आधुनिक वैज्ञानिकों का भी यही कहना है आइन्सटाईन भगवद गीता का अध्ययन करके हैरान रह गया था
ब्रह्मड में सबकुछ, चाहे जीवीत है यां अजीवित, एक ही चेतना से बना है प्राचीन ग्रंथ जैसे उपनिष्द और गुरु ग्रंथ साहिब में भी यही कहा गया है सिक्खों में अभिवादन करने का बहुत उत्तम तरीका है - सत्श्रियाकाल सत+ श्री + अकाल: सत - सत्य, श्री - धन, अकाल - जो समय से परे है तो जब आप यह कह कर अभिवादन करते है, आप एक दूसरे को अपना वासत्विक स्वरूप याद दिलाते हैं, वो स्वरूप जो समय से परे है और आपका असली धन है तुम अपने से बाहर क्या ढूंढते हो, सब कुछ अपने भीतर ही है
प्रश्न: यदि सब कुछ बदल रहा है, कुछ भी करने का क्या मतलब है?
श्री श्री रवि शंकर: यह सवाल पूछने में क्या मतलब है? उत्तर समझने में क्या मतलब है? हम कुछ करते हैं क्योंकि हम कुछ किए बिना नहीं रह सकते यह भी बदलाव का हिस्सा है
'सब कुछ बदल रहा है' - यह समझने के लिए है
पर हमें कुछ करते रहना है, और यदि हम ऐसा करते हैं जो हमे शांति देता है और विकास की तरफ ले जाता है तो यह बहाव की दिशा में तैरने जैसा है
और कुछ ऐसा करना जो हमे विकास से दूर ले जाता है, बहाव की उल्टी दिशा में तैरने जैसा है
प्रश्न: अपने प्रति अपराधबोध और आलोचना के भाव से कैसे बाहर आ सकते हैं? मुझे ऐसा करके बहुत दुख होता है जब्कि मैं जानता हूँ जो मैने किया वो मेरे लिए सबसे बेहतर था
श्री श्री रवि शंकर: और Advance कोर्स
प्रश्न: अहंकार क्या है? क्या अहंकार और प्रेम एकसाथ चल सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर: अहंकार अलगाव की भावना है, एक अलग पहचान की भावना
तीन प्रकार का अहंकार है:
१. 'मैं यह हूँ'
२. 'मैं यह नहीं हूँ'
३. 'मैं दूसरों से भिन्न हूँ'
अहंकार कैसे लुप्त हो सकता है?
जब अहंकार का विस्तार होता है 'मैं यह हूँ', 'मै यह भी हूँ', 'मैं वो भी हूँ' मुश्किल तब होती है जब हम किसी एक पहचान में फंस जाते है जैसे कि अगर तुम सेना अधिकारी हो और घर पर भी तुम वैसा ही व्यवहार करते हो तो मुश्किल होती है तुम सेना अधिकारी हो, यह तुम्हारी एक पहचान है पर तुम एक पिता, एक पति, एक पुत्र भी हो यह सभी तुम्हारी पहचान है जब तुम इन सब भूमिकाओं को एक जैसा महत्व देते हो तो अहंकार घुल जाता है एक संकुचित पहचान से दिव्यता के साथ पहचान करना ही अहंकार का विस्तार करना है तुम मैंपन से अहं ब्रह्म की ओर बढ़ते हो 'मैं कुछ हूँ' से 'मैं कुछ नहीं हूँ', और 'मैं कुछ नहीं हूँ' से 'मै सबकुछ हूँ' पर यह बहुत दार्शनिक लगता है तुम अपने दफ्तर में जाकर यह नहीं कह सकते कि तुम कुछ नहीं हो ना ही तुम अपने घर पर कह सकते हो कि तुम सबकुछ हो ऐसा करने से कुछ नहीं होगा मैं कहूँगा, अपने अहंकार से बाहर आने का सबसे श्रेष्ठ तरीका है - सहजता
अहंकार से तुम असहज, अप्राकृतिक और अलग महसूस करते हो हर किसी से हर परिस्थिति में सहजता से व्यवहार करना, यह एक बच्चे की तरह सरल रहना है
अहंकार के बारे में एक अंतिम बात यह कहूँगा कि अगर तुम्हे लगता है कि तुममें अहंकार है तो इससे छेड़-छाड़ मत करो इसे अपनी जेब में रखो और चिन्ता मत करो
प्रश्न: मैं अपने शरीर को शुद्ध कैसे कर सकता हूँ?
श्री श्री रवि शंकर: प्राणायाम, सही भोजन, मन और शरीर को विश्राम देकर, और सही मार्गदर्शन में उपवास रखकर
प्रश्न: हम कौन से निर्णय दिल से लेते हैं और कौन से दिमाग से?
श्री श्री रवि शंकर: व्यापार दिमाग से और सेवा दिल से करो
"समाज में शांति के लिए राजनीति में आध्यात्मिकता, व्यापारिक कंपनियों में सामाजिक दायित्व की भावना और धर्म में धर्मनिरपेक्षता होना आवश्यक है"
ने एक हवाइ मंत्र के साथ श्याम की शुरुआत की। फ़िर उन्होने भारतीय और हवाइ सभ्यता की समानता के बारे में कहा।
श्री श्री ने धन्यवाद देते हुए शुरुआत की।

श्री श्री रवि शंकर : एक ही बात को एक अलग नज़रिए से सुनकर बहुत अच्छा लगा। यह बहुत ही सुन्दर है कि किस तरह सभी सभ्यतायों में एक जैसी बात कही गई है। जिस तरह Ramsay Taum ने ज़िक्र किया, उसी तरह संस्कृत में भी पाँच तत्व हैं - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। फिर हैं मन, बुद्धि और अहंकार। और फ़िर आत्मा।
जब हम ने एक दूसरे को mahalo कह कर नमस्कार किया, तो वो अहंकार से परे एक कदम है। ’मा’ का अर्थ है - जिसे तुम जानते हो। बच्चे का पहला शब्द माँ होता है। एक बच्चा मैं की भावना से परे देखता है। यह बहुत ही सुन्दर है कि दुनिया में सभी सभ्यतायों का मूल एक जैसा ही है।

प्रश्न : हम अहंकार पर काबू कैसे कर सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : अहंकार को काबू करने का प्रयास भी मत करो। अगर तुम्हे लगता है कि तुममे अहंकार है तो इसे अपनी जेब में रखो। अहंकार को काबू करने में उससे भी बड़ा अहंकार हो जाता है। अहंकार अनदेखा किया जाना पसन्द नहीं करता। अहंकार का इलाज है - बच्चे की तरह सरलता में रहना। अगर फ़िर भी तुम्हे अहंकार परेशान करे तो उसे वहीं रहने दो।
प्रश्न : कुछ लोग लालची और क्रूर क्यों होते हैं? हम उन्हे बदल सकते हैं यां उन्हे वैसे ही स्वीकार कर लेना चाहिए?
श्री श्री रवि शंकर : कुछ लोग नहीं जानते वो भीतर से कितने सुन्दर है। हर अपराधी के भीतर हालात का शिकार एक व्यक्ति मदद की पुकार कर रहा है। कोई भी पैदाइश से हिंसक नहीं होता। सही शिक्षा के अभाव में इन्सान ऐसा बन जाता है।
प्रश्न : ध्यान का यह तरीका अन्य तरीकों से कैसे विशेष है?
श्री श्री रवि शंकर : यह तुम्हे साधारन बनाता है और यह केवल साधारन लोगो के लिए ही है। अगर तुम खुद को बहुत विशेष मानते हो तो ध्यान नहीं होगा। इसकी यही विशेषता है।
प्रश्न : हमें प्रेम के बारे में कुछ बताएं। अनुशासन का पालन कैसे करें?
श्री श्री रवि शंकर : तुम अपने पर किसी चीज़ को प्रेम करने यां ना करने के लिए दबाव नहीं डाल सकते। सहजता से अपने स्वभाव में रहो। तीन सूरतों में तुम अनुशासन का पालन कर सकते हो:प्रेम, भय और लालच। जब तुम प्रेम में होते हो तो अनुशासन सहज ही हो जाता है। किसी चीज़ का भय यां कोई बड़ा लालच भी तुम्हे अनुशासन में रखता है।
प्रश्न : अपना भाग्य पूरा करने के लिए क्या चाहिए?
श्री श्री रवि शंकर : विश्वास - यह विश्वास की तुम अपना भाग्य पा सकते हो।
प्रश्न : क्या विश्व के नेता दुनिया की मुश्किलों का हल कर सकते हैं? यां वो आर्थिक रूप से कुछ ही लोगो से प्रेरित हैं?
श्री श्री रवि शंकर : मुझे लगता है तुम्हारे प्रश्न में उत्तर भी है। मुझे लगता है ऐसे बहुत से विश्व के नेता हैं जो समाज के लिए कुछ अच्छा करना चाहते हैं पर उनके हाथ बन्धे हैं। बहुत बार वो सामाजिक व्यवस्था के कारण कुछ कर नहीं पाते। कुछ ऐसे भी हैं जिनको केवल अपनी पदवी और पार्टी से ही मतलब है। लोगों के हित से ज़्यादा इनके लिए अगले चुनाव और पार्टी की ज़रुरतें ज़्यादा महत्वपूर्ण है। ये बड़े मुद्दों पर काम करना भी चाहें तो इनके सामने अपने राजनीतिक एजेंडे खड़े हो जाते है। एक शासक सुधारक नहीं बन सकता और एक सुधारक शासक नहीं बन सकता। इनकी अलग अलग भूमिका है और इनको मिलकर काम करना चाहिए।
प्रश्न : शादी के महत्व के बारे में हमे बताएं।
श्री श्री रवि शंकर : मुझे इस विषय में अनुभव नहीं है! शादी एक महत्वपूर्ण पद्धती है जो तुम्हे जीवन में किसी को स्वीकार करके आगे बढ़ना सिखाती है। इससे तुम बाँटना, दूसरे की देखभाल करना और अपनी देखभाल कराना सिखते हो।
"साधना का अर्थ है हर तरह के प्रयत्न से विश्राम"
ध्यान में कोई प्रयत्न नहीं है। हम जो भी प्रयत्न से प्राप्त करते हैं, वो हमारे अहंकार को बढ़ाता है। जो तुम नहीं कर सकते, तुम्हें करने की आवश्यकता नहीं है। कोई कहे कि तुम्हें ४० दिन तक उपवास रखना है। तुम्हारा शरीर इसे सहन नहीं कर सकता। ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। पर अगर तुम सोचो कि तुम कुछ नहीं कर सकते, तो तुम आलसी हो जाओगे। तब भी तुम कुछ नहीं पाओगे।