"गुरु पूर्णिमा २०१० - गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर का संदेश"
हार्टफ़ोर्ड, अमरीका
वर्ष की १२-१३ पूर्णिमाओं में से वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध को समर्पित है (उनके जन्म और बुद्धत्व को), ज्येष्ठ पूर्णिमा पृथ्वी माता को समर्पित है, तथा आषाण पूर्णिमा गुरुओं की स्मृति में समर्पित है।
इस दिन शिष्य अपनी पूर्णता में जागृत होता है, और इस जागृत अवस्था में वह आभार प्रकट किये बिना रह ही नहीं सकता। ये आभार द्वैत का ना होकर, अद्वैत का है। ये एक नदी नहीं है जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा रही है, ये एक सागर है जो अपने भीतर ही रमण करता है। कृत्ज्ञता, गुरु पूर्णिमा पर पूर्णता की अभिव्यक्ति है।
गुरु पूर्णिमा के उत्सव का ध्येय यह देखना है कि पिछले एक वर्ष में जीवन में कितना विकास हुआ है। एक साधक के लिये गुरु पूर्णिमा का दिन नव वर्ष के दिन की तरह महत्वपूर्ण है। इस दिन अवलोकन करें कि साधना के पथ पर आप ने कितनी तरक्की की है, और अगले वर्ष में जो करना चाहते हैं उसके लिए संकल्प लें। जैसे पूर्णिमा का चँद्रमा उदय और अस्त होता है, आभार के अश्रु बहते हैं। अपने अनंत विस्तार में विश्राम करें।
आप जानते हैं कि हमारे शरीर में लाखों कोषिकायें हैं, और हर एक कोषिका का अपना जीवन क्रम है। कई कोषिकायें प्रतिदिन जन्म ले रहीं हैं, और कई कोषिकायें मर रही हैं। तो, आप एक चलता फिरता शहर हैं! इस पृथ्वी पर कितने ही शहर हैं, और ये पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगा रही है। उसी तरह आपके भीतर कितनी ही कोषिकायें और जीव जंतु हैं और आप चलायमान हैं। आप एक चलता फिरता शहर हैं। जैसे एक मधुमक्खी के छत्ते में कई मधुमक्खियां आकर बैठती हैं, पर रानी मक्खी चली जाये तो सभी मधुमक्खियां छत्ता छोड़ देती हैं। रानी मक्खी की ही तरह, हमारे शरीर में एक परमाणु है। अगर वो ना हो, तो बाकी सब चला जाता है। वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, वही आत्मा है, ईश्वर है। वो सब जगह व्याप्त है, फिर भी कहीं नहीं है।
तुम भी वही हो। वही परमात्मा है और वही गुरु तत्व है। जैसा मातृत्व होता है, पितृत्व होता है, गुरुत्व भी होता है। आप सब भी किसी ना किसी के गुरु बनो। जाने अनजाने आप ऐसा करते ही हैं,लोगों को सलाह देते हैं, उन्हें रास्ता दिखाते हैं, प्रेम देते हैं और देखरेख करते हैं। पर ऐसा करने में अपना १०० प्रतिशत दें और बदले में उनसे कुछ ना चाहें। यही है अपने जीवन में गुरुत्व को जीना, अपनी आत्मा में जीना। आप में, परमात्मा में, और गुरु तत्व में कोई अंतर नहीं है। ये सब उस एक में ही घुल जाना हैं, लुप्त हो जाना है।
ध्यान का अर्थ है विश्राम करना और उस अतिसूक्ष्म परमाणु में स्थित रहना। तो उन सब चीज़ों के बारे में सोचें जिनके लिये तुम आभारी हो, और जो चाहते हो वो मांग लो। और सब को आशीर्वाद दो। हमें बहुत कुछ मिलता है, पर लेना ही काफ़ी नहीं है। हमें देना भी चाहिये। उन्हें आशीर्वाद दें, जिन्हें इसकी ज़रूरत हो।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment