Monday, 22 October 2012

भक्ति के रंग

भक्ति के रंग ०५अक्टूबर २०१२,बैंगलुरु आश्रम, सत्यनिष्ठा व्यक्ति के स्वभाव का गुण है| यदि कोई व्यक्ति सत्यनिष्ठ है, तो वह घर पर सत्यनिष्ठ होगा, वह व्यवसाय में भी सत्यनिष्ठ होगा| चाहे वो पति हो या पत्नी वो अपने जीवनसाथी के लिए सत्यनिष्ठ होगा| सत्यनिष्ठ जहाँ भी होता है सत्यनिष्ठा उसके चरित्र से साफ़ झलकती है| यही बात भक्ति के लिए भी सच है| भगवान का भक्त देश का भी भक्त होता है और साथ ही सारी सृष्टि का भक्त होता है| उनकी प्रेम और भक्ति जीवन के हर क्षेत्र में दिखाई देती है| अक्सर लोग प्रश्न करते है कि भगवान का भक्त देश का भक्त कैसे हो सकता है या देशभक्त कैसे हो सकता है, मै कहता हूँ, बिलकुल हो सकता है| अगर कोई अपने देश के लिए निष्ठावान है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वो किसी और देश या और बाकी सारे देशों का शत्रु है| हमारा दृष्टिकोण देशभक्ति के लिए बहुत ही संकीर्ण है| सामान्यतः हम किस प्रकार से अपनी देशभक्ति प्रदर्शित करते है? अन्य देशों का विरोध करके या उनसे शत्रुता रखकर| जब अंग्रेजों का हिंदुस्तान पर राज था तब उस समय अगर हम अंग्रेजों के विरुध खड़े होते थे तो हम देशभक्त कहलाते थे| आजकल अगर हम पाकिस्तान के विरुध खड़े होते है तो हम देशभक्त कहलाते हैं, यह सही नहीं है| आपके देशभक्ति की भावना किसी देश का विरोध करने या उसे नीचा दिखाने में नहीं होनी चाहिए| अगर आप अमेरिका में देखे तो पाएंगे की जो अपने आप को देशभक्त कहते है वे केवल अपने देश के प्रति अपनी भक्ति दिखाते हैं| वो किसी देश के विरुध नहीं हैं| इसलिए वे जो देशभक्त है या अपने देश के लिए समर्पित है वह सारे विश्व और सारी सृष्टि के लिए समर्पित है| जिनकी निष्ठा विश्वात्मा में है वो उनको भगवान और देश की निष्ठा में कोई अंतर नहीं दिखाई देता| अच्छा देखो, अगर आप अपने परिवार का ध्यान रखते है, उसका पालन पोषण करते है, इसका मतलब यह तो नहीं की आप और लोंगो के दुश्मन हो जाते हैं| आप अपने आसपास के लोगों का भी ध्यान रखते है और और उनको भी अपने परिवार जैसे ही प्यार करते है, है कि नहीं ? अगर कोई माँ अपने बच्चों को बहुत प्यार करती है तो उसके अन्दर अपने पडोसी बच्चों के लिए भी प्यार हो सकता है| ऐसा नहीं है कि अगर उसके मन में अपने बच्चों के लिए स्नेह है तो और बच्चों के लिए नहीं होगा, और अगर ऐसा है तो वो प्यार नहीं है, वो श्रध्दा नहीं है| एक फूल की तरह, जो चाहे कहीं भी हो, श्रध्दा की सुगंध हर तरफ फैलती है| देखो जैसे यह फूल है, इसे चाहे कहीं भी रख दो यह अपनी सुगंध हर तरफ फैलाता है| अगर आप चमेली के फूल को रसोईघर में रखे या स्नानघर में, ये फिर भी अपनी सुगंध फैलाएगा| फूल कोई अन्तर नहीं रखता की मै यहाँ पर सुगंध फैलाऊँगा और वहां नहीं| उसकी प्रकार से तुम जहाँ भी अपनी श्रध्दा रखोगे वह वहीं पर फलदायी और समृद्ध होगी| तुम अपने काम के प्रति भी श्रध्दा और निष्ठा रख सकते हो| एक प्रसिद्द कन्नड़ संत ने कहा था "कयाकावे कैलाशा", जिसका मतलब यह है की जो अपने कर्म को अच्छी तरह करता है उसे ही परमानन्द की प्राप्ति होती है| यह बात संस्कृत की अनेकों धर्मग्रंथों में भी कही गयी है| इसलिए समाज की सेवा ही सच्ची पूजा है| पूजा और सेवा में कोई अंतर नहीं है, क्योंकि दोनों का मूल आधार श्रध्दा है और परिणाम भी श्रध्दा ही है| यही बात अहंकार के लिए भी सच है, आप जिस पर भी अपना अहंकार केन्द्रित करते है वह उससे ही जुड़ जाता है| वह उसका ही आकर ले लेता है| अगर आप अपना अहंकार ब्रह्मं में लगते है तो आप "अहम् ब्रह्मास्मि" की स्थिति तो प्राप्त कर लेंगे (अहम् ब्रह्मास्मि - अहम् का मतलब है "मै" और ब्रह्मास्मि का मतलब है की "ब्रह्म हूँ ", इस बात का अनुभव होना की मै भी वो ब्रह्म हूँ जो सारी सृष्टि में व्याप्त है सभी अहंकारों को नष्ट कर देता है)| अगर तुम अपने अहंकार को छोटी छोटी वस्तुओं से जोड़ कर रखोगे तो वो अपने आप को उन के साथ जोड़ लेगा और उस जैसा ही संकीर्ण और सीमित हो जायेगा| इससे तुमको यह अनुभव होता है की "मैं कुछ हूँ", मैं एक मंत्री हूँ, मै एक पापी हूँ, मैं एक पवित्र आत्मा हूँ, मैं बहुत बुध्धिमान हूँ, मै मूर्ख हूँ .. आदि आप जहाँ पर भी अपने अहंकार को केन्द्रित करेंगे वो ही जीवन में प्रचुर मात्रा में बढ़ेगा और फलदायी होगा| जिस प्रकार से अहंकार के अन्दर प्रचुर मात्रा में बढ़ने की शक्ति है उसी प्रकार से श्रध्दा में भी प्रचुर मात्रा में बढ़ने की शक्ति है| योग विद्या में भी ऐसा कहा गया है "तस्य भूमिषु योगः" (विभूति पद # ६, पतंजलि योग सूत्र) कि योग के सतत अभ्यास से जो "योग सिद्धि" (योग से प्राप्त की गई असाधारण और चमत्कारी योग्यता) और बढ़ी हुई जागरूकता प्राप्त होती है उसको समाज और धरती के लिए लाभकारी कार्यों की तरफ लगाना चाहिए| प्रश्न : प्रिय गुरूजी, वेदिक धर्मग्रंथों के अनुसार पूरा संसार एक मिथ्या है, यह विश्व, और पूरी सृष्टि भी| मैं यह समझ नहीं पा रहा| क्या आप इसे विस्तार से समझा सकते हैं? श्री श्री रविशंकर : हाँ, यह स्पष्ट है| यदि आप प्रमात्रा भौतिक विज्ञान पढ़ें, वह यही कहता है| वस्तुओं के नाम और आकार सत्य नहीं हैं; सत्य यह है कि ये सब एक ही तरंगरूप के हिस्से हैं| सब कुछ एक ही ऊर्जा से बना है| वेदांत में हमेशा यह कहा गया है| मिथ्या का अर्थ क्या है? यह नहीं कि उसका अस्तित्व नहीं है, बल्कि यह कि वह बदलता रहता है| यहाँ हर वस्तु बदलती है और जो बदलता रहता है, वह माया कहलाती है| जिसको भी नापा जा सके, वह माया है| माया को मिथ्या नहीं समझना चाहिए| हमारे समय के उच्च प्राध्यापकों में से एक, डा. हान्स पीटर दर्र, कुछ वर्ष पहले आश्रम में थे| जानते हैं उन्होंने क्या कहा था? उन्होंने कहा, “गुरूजी, मैंने तत्व का ३५ वर्षों तक अध्ययन किया है, केवल यह समझने के लिए कि उसका अस्तित्व नहीं है! जो है वो केवल ऊर्जा है|” उन्होंने ये भी कहा, “जब मैं यह कह रहा हूँ, तो ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे मैं कोई पूर्वी सिद्धांत कह रहा हूँ|” पूर्वी दर्शन शास्त्रों में यह हज़ारों वर्ष पूर्व कहा गया था जो वैज्ञानिक आज कह रहे हैं| इस लिए जो प्रतीत होता है, वह वास्तव में होता नहीं है| यह पानी का फ्लास्क एक ठोस वस्तु प्रतीत होता पर एक वैज्ञानिक कहेगा, “नहीं, यह मात्र परमाणु हैं|” और इस के आगे कहेगा, “यह सब केवल ऊर्जा है”| हर वस्तु के भीतर एक विशाल जगह है और जैसे हम समझते हैं, वह यथार्थ नहीं है| हमारी अवधारणा इन्द्रियों के माध्यम से है और वैज्ञानिक इस अवधारणा के पार जा कर सत्य का निष्कर्ष निकालते हैं| देखिये, एक परमाणु हमें आँखों से नहीं दिखता| आप एक परमाणु नहीं देख सकते और आप ऊर्जा नहीं देख सकते पर आप जानते हैं कि वह यहाँ है| इस लिए, इस पूरे संसार का कोई अस्तित्व नहीं है का अर्थ है, जागो और देखो, सारा अतीत, क्या वह अभी भी जिंदा है?नहीं! वह केवल एक स्मृति की तरह है| समय के बहाव में, घटनाएं घुल रही हैं, इस लिए, किसी घटना का कोई अस्तित्व नहीं है| जो अभी है, अगले क्षण में, वह पहले ही बीत गया है| जैसे एक नदी में हर क्षण ताज़ा पानी होता है| उसी प्रकार, प्रकृति हर क्षण बदल रही है| और जो बदलता है, वह माया है| जिसे नापा जा सकता है, वह माया है| इस लिए, एक बहाव में देखें, तो सब विद्यमान है, पर एक सत्य की तरह नहीं| सारा संसार नाम और आकार है| ना नाम और ना ही आकार स्थायी है – यही सन्देश है| नाम भिन्न हो सकते हैं| आप किसी वस्तु को यहाँ एक नाम से पुकारते हैं, और दूसरे देश में किसी और नाम से| और किसी और देश में, यही वस्तु किसी तीसरे नाम से पुकारी जाती है| तो नाम स्थायी नहीं है, केवल हमारी सुविधा के लिए है|ऐसा ही आकार के साथ भी है| प्रश्न : प्रिय गुरूजी, सत्य बहु-आयामी है, इसका क्या अर्थ है? श्री श्री रविशंकर : हाँ, ऐसा कहा गया है| देखिये, इस जगह पर आने के लिए कोई व्यक्ति कहेगा, “यहाँ से सीधा जाओ और बाईं ओर मुड़ जाओ”| मैं कहूँगा यह सही है| एक और व्यक्ति ऐसे दिशा बताएगा, “यहाँ से सीधा जाओ, और दायीं ओर मुड़ जाओ| मैं कहूँगा यह भी सही है| तीसरा व्यक्ति कहेगा, “केवल सीधा जाओ, दायें या बाएं नहीं मुड़ना|” मैं कहूँगा यह भी सही है| अब यदि आप मुझे कहें, “केवल एक सही रास्ता ही हो सकता है| तीन सही रास्ते नहीं हो सकते”| मैं कहूँगा, “सत्य बहु-आयामी है”| यह जगह बहु-आयामी है| यहाँ आने के लिए बहुत से रास्ते हो सकते हैं, बहुत से निदेश हो सकते हैं, और ये सब सही हैं| प्रश्न : इस सृष्टि का क्या उद्देश्य है? श्री श्री रविशंकर : किसी खेल का क्या उद्देश्य होता है? (उत्तर: जीत या मनोरंजन) हाँ, केवल मनोरंजन, या मज़ा, है ना? उसी तरह| ब्रह्म पहले केवल एक थे और वो थोड़े ऊब गए थे इस लिए उन्होंने कहा, “मैं एक से बहु बन जाता हूँ”| जैसे ही यह विचार उस एक चेतना में आया वे एक से अनेक हो गए| आपने वो शीशा देखा है जिसमे हज़ारों छोटे शीशे होते है? व्यक्ति ऐसे एक शीशे के सामने खड़ा होता है और उसे अपनी हज़ारों छवियाँ दिखाई देती हैं| वह यह नहीं कहता, “जब एक शीशे ने आपकी छवि को पूर्ण रूप से दिखा दिया है, तो वह दूसरे शीशे में कैसे जा सकती है?”नहीं| यह तर्क काम नहीं करता, सही है ना? यही है वह, कि एक परमात्मा ने स्वयं को लाखों करोड़ों छवियों में ढाल लिया है, पर सत्य एक ही है| प्रश्न : प्रिय गुरूजी, साधना के अतिरिक्त हम कैसे निश्चित कर सकते हैं कि हम बार बार जीवन में वापिस ना आयें और मोक्ष प्राप्त करें? श्री श्री रविशंकर : संतोष! तृप्ति| जो भी कार्य करें, खुश हो कर और संतोष के साथ करिये| आपने आज का काम कर लिया है और आप संतुष्ट हैं| और कल भी जो कार्य करें, संतोष के साथ करें| जीवन के हर क्षण को संतोष के साथ जेएं; इस से आपको जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिलती है| प्रश्न : गुरूजी, मैं आपके द्वारा लिखित पुस्तक, अष्टवक्र गीता, पढ़ रहा हूँ| उसका हर शब्द मुझे बहुत अच्छा महसूस करता है| परन्तु, जो आपने कहा है कि धर्म (इंसान का सामाजिक और नैतिक नीतिपरायणता के प्रति कर्तव्य), अर्थ (आर्थिक और नैतिक समृद्धि) और काम (कामिक सुख) बंधन के मुख्य कारण हैं, यह सही है| पर मैं अपने आप को इस बंधन से मुक्त नहीं कर पा रहा हूँ| मैंने अपना पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) किया है पर मुझे लगता है अब यह आपके आशीर्वाद से ही संभव है| श्री श्री रविशंकर : देखिये, अष्टवक्र गीता में कहा है, “न ग्राह्यं न त्याज्यं”| ना ही आपको उसे जकड कर रखना है, ना ही उसे त्यागने का असीम प्रयत्न करना है| बस खोखले और खाली हो जाइये और चीज़ों को जैसी वे हैं वैसे देखिये| कहा गया है, “ये दृष्ट लाभ संतुष्टम”| इसका अर्थ है, जो भी आपको मिले, जितना भी मिले, उस से संतुष्ट रहिये| यह बहुत महत्वपूर्ण है, संतुष्टि| एक साधक के पास दोनों होने चाहियें – संतुष्टि और काम में जोश| मैं हमेशा संतुष्टि के हक में हूँ| पर जब मैं संतुष्टि कहता हूँ, तो लोग उसे हालात से समझौता समझ लेते हैं| इस लिए, मैं ऐसे दर्शाता हूँ कि जो हो रहा है मैं उस से संतुष्ट नहीं हूँ, और उन्हें किसी न किसी काम में लगाये रखता हूँ, कुछ न कुछ ठीक करने में| यह इस लिए कि आप सुस्त या निष्क्रिय न बन जाएँ| इस लिए, कर्मठ भी रहिये और साथ ही आत्मसंतुष्टि का भाव भी रखिये| यह बहुत आवश्यक है| कुछ लोग हैं जो हर समय काम करते रहते हैं, पर संतुष्ट नहीं हैं| और कई व्यक्ति हैं जो इतने संतुष्ट हैं कि वे सुस्त बन जाते हैं| उनकी काम के प्रति निष्ठां नहीं होती| यह सही नहीं है| हमें बीच का रास्ता लेना है| हमें दोनों एक साथ पाने हैं| काम में जोश और साथ ही मन में संतोष का भाव| यह हमारा गुण होना चाहिए| कभी कभी लोग सोचते हैं, गुरुदेव ऐसे क्यों बर्ताव कर रहे हैं? वे क्यों कह रहे हैं, यह करो, वह करो? वे संतुष्ट रहने और कुछ प्रयत्न ना करने के बारे में बात क्यों नहीं कर रहे? पर मैं हर चीज़ पर नज़र रखता हूँ| और जिसे भी कुछ करने की आवश्यकता है, उनका मैं उस दिशा में मार्ग दर्शन करता हूँ| वे लोग जो बहुत उत्तेजित रहते हैं, उन्हें मैं शांत और विश्राम में रहने को कहता हूँ| और जो बहुत शांत हैं, उन्हें मैं कहता हूँ, “चलो, उठो! कुछ करो| यह करो, वह करो! देखो, उस आदमी ने कितना अच्छा काम किया है| तुम यहाँ बैठे हो और कुछ नहीं कर रहे!” इस तरह मैं सबको कुछ करने के लिए प्रेरित करता हूँ| भगवद गीता में भगवान कृष्ण ने भी इसी प्रकार ज्ञान दिया है| भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “तुम युद्ध नहीं लड़ोगे? क्या कह रहे हो? लोग तुम्हारी हंसी उड़ायेंगे| इतने लोगो का उपहास सहने से अच्छा है मृत्यु को प्राप्त होना|” भगवान कृष्ण इस हद तक जाते हैं अर्जुन को युद्ध लड़ने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए| वे उसे कहते हैं, “एक कायर की तरह जीना व्यर्थ है| इस तरह जीने से अच्छा तुम जीवन त्याग दो”| बाद में वे अर्जुन से कहते हैं, “सर्व-धर्मं परित्यज्य मम एकं सरणम व्रज| अहं तवं सर्व-पपेभ्यो मोक्षयिस्यामी मा सुकाह” (भगवद गीता, पाठ १८)| सब धर्म त्याग दो और मेरे आगे समर्पण कर दो| मैं तुम्हें मुक्ति दूंगा और तुम्हारे सारे पापों से आज़ाद कर दूंगा| तुम स्वयं अपने पापों से मुक्त नहीं हो सकते| मैं तुम्हें पापों से मुक्ति प्रदान करूँगा| इसलिए अपने पापों की चिंता मत करो, उन्हें मैं संभाल लूँगा| तुम प्रसन्न रहो और उदास मत हो| इसलिए, ज्ञान के विभिन्न स्तर हैं, और हर स्तर का अपना उद्देश्य है|

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