Wednesday, 30 June 2010

Ishwar kya hai

ईश्वर के विष्य में शिष्य और अध्यापक की वार्ता"


शिष्य : ईश्वर क्या है? दिव्यता क्या है?

अध्यापक :
भोजन ईश्वर है।
उत्तर लेकर शिष्य वापिस जाता है, भोजन उगाता है, और वो भोजन के महत्व को समझकर, शरीर और मन पर भोजन के प्रभाव का अध्ययन करता है। इसकी जानकारी के बाद उसे लगता है कि भोजन से अधिक भी कुछ है जीवन में। वह पुन: अपने अध्यापक के पास जाता है।

शिष्य : ईश्वर क्या है। वो क्या दिव्य शक्ति है जिसके कारण सबकुछ है?

अध्यापक :
प्राण ईश्वर है। श्वास ईश्वर है।
शिष्य वापिस जाकर प्राण को समझने में अपना समय व्यतीत करता है - ’श्वास किस तरह शरीर के भीतर और बाहर जा रही है’। इस बारे में समझ कर, यह सीढ़ी चड़कर उसे लगता है कि इसके आगे भी कुछ है। वो आदरपूर्वक अपने अध्यापक के पास जाता है और वही प्रश्न पूछता है।

शिष्य : मैने प्राणों के बारे में जाना पर मैं पूर्ण संतुष्ट नहीं हूँ। कृप्या मुझे बताइए ईश्वर क्या है?

अध्यापक :
मन ईश्वर है?
फिर शिष्य अपना समय मन के निरीक्षण में लगाता है और जानता है - ’मन में कुछ अच्छे विचार आते हैं और कुछ बुरे विचार। कभी मन होता है और कभी मन विलीन हो जाता है।’ इसपर कुछ समय बिताने के बाद उसे लगता है कि मन से अधिक भी कुछ है। मन सबकुछ नहीं है। वह पुन: अध्यापक के पास जाकर वही पूछ्ता है।

अध्यापक :
ज्ञान ईश्वर है। फिर वो ज्ञान सुनता है, गुनता है। मन में उसे समझता है। पर वो फिर भी संतुष्ट नहीं होता। ज्ञान बहुत आवश्यक है आगे बढ़ने के लिए पर फिर भी उसे कुछ कमी का आभास होता है। वह फिर से अपने अध्यापक के पास जाता है और आख़िरी बार पूर्ण आदर से वही पूछ्ता है।

अध्यापक :
परमानंद ईश्वर है।
शिष्य वापिस जाता है और परमानंद अनुभव करता है।
एक एक कदम से अध्यापक शिष्य को आगे लेकर जाता है। इसीलिए ज्ञानी के सानिध्य में ज्ञान पाने का इतना महत्व है। जब ज्ञानी बोलते हैं तो पीछे पीछे अर्थ भागता है। गुरु मुख से सुनने पर ज्ञान जीवन के अनुभव में आता है क्योंकि वो जीवन के अनुभव को ही बोल रहें है। अनुभव से अनुभव जग जाता है। पर शिष्य ने कभी यह शिकायत नहीं की कि उसे हर कदम पर पूर्ण सत्य नहीं बताया गया। वह समझता था कि जिसे भोजन का पूर्ण ज्ञान नहीं उसे ’ईश्वर परमानंद है’, यह अनुभव में नहीं आएगा, और बाकी के कदमों पर भी ऐसा ही है। जिस के पास खाने के लिए कुछ नहीं उसे पर्मानंद की अनुभूति कैसे होगी?

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