Wednesday, 1 September 2010

ज्ञान के मोती

विज्ञान से तुम ये जान पाते हो कि, ‘ये क्या है।’ आध्यात्म से तुम ये जान पाते हो कि, ‘मैं क्या हूं।’
"जीवन का क्या महत्व क्या है"
"विश्वास तुम्हारी चेतना के सभी बिखरे कणों को केन्द्रित करता है"
विज्ञान से तुम ये जान पाते हो कि, ‘ये क्या है।’ आध्यात्म से तुम ये जान पाते हो कि, ‘मैं क्या हूं।’
आज श्री श्री ने क्या कहा...जर्मन आश्रम२६ अगस्त

एक प्रश्न मैं अपने आप से बहुत समय से करता आया हूं, पर समझ नहीं पा रहा हूं कि उसे किन शब्दों में कहूं। ये अजीब लग सकता है, पर जब मैं पूरे ब्रह्माण्ड को आपस में जुड़ा हुआ पाता हूं, तो सोचता हूं कि इस में मनुष्य का क्या कोई उपयोगी महत्व है, और हम जब तक यहां हैं, क्या हमारे अस्तित्व से दूसरों को कोई लाभ है भी?श्री श्री रवि शंकर : बहुत अच्छा प्रश्न है! जीवन का क्या महत्व है और हम यहां किसलिये हैं? तुम्हें खुद को शाबासी देनी चाहिये अगर ये प्रश्न तुम्हारे जीवन में आया है, इसका अर्थ है कि तुम्हारी बुद्धि प्रौढ़ है। यहां लाखों लोग बिना ये प्रश्न पूछे कि, ‘जीवन का ध्येय क्या है? मैं यहां क्यों आया हूं?’ अपना पूरा जीवन बिता देते हैं। वे बस भोजन करते हैं, पीते हैं, टेलिविज़न देखते हैं, प्रेम या लड़ाई करते है और मर जाते हैं। उन्हें इस बारे में ज़रा भी ख़्याल नहीं आता। वे एक मिनट भी रुक कर ये नहीं सोचते कि, ‘जीवन क्या है? मैं कौन हूं? मुझे क्या चाहिये? मैं क्या कर सकता हूं? मैं कैसे उपयोगी हो सकता हूं?’ इन में से कोई भी प्रश्न उनके मन में नहीं आते। अगर ये प्रश्न तुम्हारे भीतर आया है तो इसका अर्थ है कि तुमने जीवन जीना शुरु कर दिया है। तुम्हारी जीवन यात्रा सही रास्ते पर जा रही है। इस यात्रा को आध्यात्म कहते हैं – ये जानना कि, ‘इस जीवन का ध्येय क्या है। मुझे क्या चाहिये? जीवन क्या है? मैं कौन हूं?’ इससे पहले कि तुम अपने आप से ये प्रश्न करो कि, ‘मुझे क्या चाहिये?’ तुम्हें ये जानना चाहिये कि तुम कौन हो। जीवन क्या है? इस प्रश्न के दो महत्वपूर्ण भाग हैं – एक विज्ञान है और एक आध्यात्म है। विज्ञान से तुम ये जान पाते हो कि, ‘ये क्या है।’ आध्यात्म से तुम ये जान पाते हो कि, ‘मैं क्या हूं।’‘मैं’ और ‘ये’। ‘ये’ की समझ तुम्हें विज्ञान से आती है। ‘मैं’ की समझ तुम्हें आध्यात्म से आती है। ये ‘मैं’ क्या है? ‘मैं’ को जानने के लिये पहले ‘ये’ को जानो। ‘ये क्या है?’ ‘ओह! ये संसार है।’ ‘ये शरीर है।’ और, ‘ये शरीर कैसे आया?’ ‘ये शरीर एक ४-५ किलो के बच्चे के रूप में आया। फिर उस बच्चे ने इस धरती से ही सब सामग्री ली और अब ५० किलो का हो गया है।तो, इस शरीर में क्या है? ये शरीर कैसे बना है? यह ध्यान देने योग्य है।प्रश्न: आपने शरीर के बारे में बताया है। मैं शरीर और पंचतत्वों के संबंध को जानना चाहता हूं।श्री श्री रवि शंकर : पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और अंतरिक्ष – ये पंचतत्व हैं। अगर इन में से एक भी तत्व ना हो तो ये शरीर टिक नहीं पायेगा। है ना? पृथ्वी तत्व से भोजन मिलता है। जल तत्व तो आप जानते ही हैं। फिर, अग्नि तत्व की, गर्मी की आवश्यकता होती है। गर्मी के बिना ये शरीर जी नहीं सकता। फिर वायु तत्व आया। शरीर के लिये वायु और अंतरिक्ष तत्व के बिना रहना भी संभव नहीं है।इस शरीर का अस्तित्व पंचतत्वों से है। और फिर इस शरीर का क्या होता है? ये शरीर पंचतत्व से आया है और उन्हीं में वापिस चला जायेगा। ये विज्ञान है। एक मृत शरीर में भी पंचतत्व विद्यमान होते हैं। तो फिर, एक मृत और जीवित शरीर में क्या अंतर है? जीवित शरीर में जीवन होता है। और, जीवन क्या है?जब ये प्रश्न आया, तब तुम देखते हो, ‘ओह! प्राण – जीवन शक्ति!’ और फिर तुम प्राण के गहन अध्धयन में जाते हो, और प्राण के बारे में समझते हो। ‘ये क्या है? ये मन है। ओह! तो ये मन क्या है? मन कितने प्रकार का होता है? मन क्या क्या करता है?’ इस जिज्ञासा से तुम आर्ट आफ़ लिविंग में आ जाते हो।प्रश्न: अस्तित्व के इतने स्तरों के बारे में आपने बताया है, कृपया इन पर कुछ और विस्तार कीजिये।श्री श्री रवि शंकर : मन, बुद्धि, स्मृति और अहंकार मन के ये चार पहलू हैं।तो, मन क्या है? क्या तुम सुन रहे हो? अगर तुम्हारी आंखें खुली हैं, और कान में तो आवाज़ जाती ही है पर यदि तुम्हारा मन कहीं और है, तो क्या तुम मेरी बात सुन सकोगे? नहीं। है कि नहीं? तो, इस मन से ही तुम महसूस करते हो। ठीक है ना? जो पांचों इन्द्रियों के ज़रिये बाहर जाता है और अनुभव करता है, वो मन है।अच्छा, अगर तुम मन से अनुभव कर रहे हो तो बुद्धि क्या है? जब तुम अनुभव करते हो, तो कहते हो, ‘ओह! ये अच्छा है। ये अच्छा नहीं है। मुझे ये चाहिये। मुझे वो नहीं चाहिये।’ तुम्हारी बुद्धि तय करती है। ये विवेक शक्ति है। मैं बोल रहा हूं और तुम्हारा मन कह रहा है, ‘ये बात मुझे पसंद नहीं है।’ या, ‘मैं ये बात मानता हूं।’ या, ‘मैं ये बात नहीं मानता।’ तुम अपने भीतर एक वार्तालाप कर रहे हो। ये बुद्धि है।और फिर, स्मृति वो है जो जानकारियों को संभाल कर रखती है। तो, कभी कभी कोई अनुभव करते हुये तुम्हें लगता है, ‘ओह! मैंने ऐसा अनुभव पहले किया है।’ अगर तुम एक सेब की मिठाई का मज़ा पहले ले चुके हो तो तुम कह उठते हो, ‘ओह! मैं पहले भी इसका मज़ा ले चुका हूं। मैंने ये सेब की मिठाई पहले भी खाई है।’ तो स्मृति का काम है अनुभव को पहचानना और उसे स्मृति में संजो कर रखना।फिर आया अहंकार। अहंकार है – ‘मैं कुछ हूं। मैं बुद्धिमान हूं। मैं मूर्ख हूं। मुझे ये पसंद है। मुझे वो पसंद नहीं है। मैं अमीर हूं। मैं बहुत ग़रीब हूं। मैं बदसूरत हूं। या, मैं सुंदर हूं। मैं कुछ हूं। मैं हूं,’ ये अहंकार है।जब तुम अहंकार को जान गये, तो कहोगे कि क्या बस इतना ही है? नहीं! अहंकार को जानने के बाद भी कुछ जानना बाकी है। वो क्या है? वो आत्मा है।इससे आगे अगली पोसट में...
"जीवन का क्या महत्व क्या है"

आज श्री श्री ने क्या कहा...२६ अगस्त २०१०प्रश्न : एक प्रश्न मैं अपने आप से बहुत समय से करता आया हूं, पर समझ नहीं पा रहा हूं कि उसे किन शब्दों में कहूं। ये अजीब लग सकता है, पर जब मैं पूरे ब्रह्माण्ड को आपस में जुड़ा हुआ पाता हूं, तो सोचता हूं कि इस में मनुष्य का क्या कोई उपयोगी महत्व है, और क्या हम जब तक यहां हैं, क्या हमारे अस्तित्व से दूसरों को कोई लाभ है भी?श्री श्री रवि शंकर : बहुत अच्छा प्रश्न है! जीवन का क्या महत्व क्या है और हम यहां किसलिये हैं? तुम्हें खुद को शाबासी देनी चाहिये। अगर ये प्रश्न तुम्हारे जीवन में आया है, तो इसका अर्थ है कि तुम्हारी बुद्धि प्रौढ़ है। यहां लाखों लोग बिना ये प्रश्न पूछे कि, ‘जीवन का ध्येय क्या है? मैं यहां क्यों आया हूं?’ अपना पूरा जीवन बिता देते हैं। वे बस भोजन करते हैं, पीते हैं, टेलिविज़न देखते हैं, प्रेम या लड़ाई करते है और मर जाते हैं। उन्हें इस बारे में ज़रा भी ख़्याल नहीं आता। वे एक मिनट भी रुक कर ये नहीं सोचते कि, ‘जीवन क्या है? मैं कौन हूं? मुझे क्या चाहिये? मैं क्या कर सकता हूं? मैं कैसे उपयोगी हो सकता हूं?’ इन में से कोई भी प्रश्न उनके मन में नहीं आते। अगर ये प्रश्न तुम्हारे भीतर आया है तो इसका अर्थ है कि तुमने जीवन जीना शुरु कर दिया है। तुम्हारी जीवन यात्रा सही रास्ते पर जा रही है। इस यात्रा को आध्यात्म कहते हैं – ये जानना कि, ‘इस जीवन का ध्येय क्या है। मुझे क्या चाहिये? जीवन क्या है? मैं कौन हूं?’ इससे पहले कि तुम अपने आप से ये प्रश्न करो कि, ‘मुझे क्या चाहिये?’ तुम्हें ये जानना चाहिये कि तुम कौन हो। जीवन क्या है? इस प्रश्न के दो महत्वपूर्ण भाग हैं – एक विज्ञान है और एक आध्यात्म है। विज्ञान से तुम ये जान पाते हो कि, ‘ये क्या है।’ आध्यात्म से तुम ये जान पाते हो कि, ‘मैं क्या हूं।’‘मैं’ और ‘ये’। ‘ये’ की समझ तुम्हें विज्ञान से आती है। ‘मैं’ की समझ तुम्हें आध्यात्म से आती है। ये ‘मैं’ क्या है? ‘मैं’ को जानने के लिये पहले ‘ये’ को जानो। ‘ये क्या है?’ ‘ओह! ये संसार है।’ ‘ये शरीर है।’ और, ‘ये शरीर कैसे आया?’ ‘ये शरीर एक ४-५ किलो के बच्चे के रूप में आया। फिर उस बच्चे ने इस धरती से ही सब सामग्री ली और अब ५० किलो का हो गया है।तो, इस शरीर में क्या है? ये शरीर कैसे बना है?प्रश्न: आपने शरीर के बारे में बताया है। मैं शरीर और पंचतत्वों के संबंध को जानना चाहता हूं।श्री श्री रवि शंकर : पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और अंतरिक्ष – ये पंचतत्व हैं। अगर इन में से एक भी तत्व ना हो तो ये श्रीर टिक नहीं पायेगा। है ना? पृथ्वी तत्व से भोजन मिलता है। जल तत्व तो आप जानते ही हैं। फिर, अग्नि तत्व की, गर्मी की आवश्यकता होती है। गर्मी के बिना ये शरीर जी नहीं सकता। फिर वायु तत्व आया। शरीर के लिये वायु और अंतरिक्ष तत्व के बिना रहना भी संभव नहीं है।इस शरीर का अस्तित्व पंचतत्वों से है। और फिर इस शरीर का क्या होता है? ये शरीर पंचतत्व से आया है और उन्हीं को वापस चला जायेगा। ये विज्ञान है। एक मृत शरीर में भे पंचतत्व विद्यमान होते हैं। तो फिर, एक मृत और जीवित शरीर में क्या अंतर है? जीवित शरीर में जीवन होता है। और, जीवन क्या है?जब ये प्रश्न आया, तब तुम देखते हो, ‘ओह! प्राण – जीवन शक्ति!’ और फिर तुम प्राण के गहन अध्धयन में जाते हो, और प्राण से अधिक कुछ पाते हो। ‘ये क्या है? ये मन है। ओह! तो ये मन क्या है? मन कितने प्रकार का होता है? मन क्या क्या करता है?’ इस जिज्ञासा से तुम आर्ट आफ़ लिविंग में आ जाते हो।प्रश्न: अस्तित्व के इतने स्तरों के बारे में आपने बताया है, कृपया इन पर कुछ और विस्तार कीजिये।श्री श्री रवि शंकर : मन, बुद्धि, स्मृति और अहंकार, मन के चार कार्य हैं। या, मन के ये चार पहलू हैं।तो, मन क्या है? क्या तुम सुन रहे हो? अगर तुम्हारी आंखें खुली हैं, और कान तो खुले हैं ही...तुम्हारे कान में आवाज़ जाती है पर यदि तुम्हारा मन कहीं और है, तो क्या तुम मेरी बात सुन सकोगे? नहीं। है कि नहीं? तो, इस मन से ही तुम महसूस करते हो। ठीक है ना? जो पांचों इन्द्रियों के ज़रिये बाहर जाता है और अनुभव करता है, वो मन है। अच्छा, अगर तुम मन से अनुभव कर रहे हो तो बुद्धि क्या है? जब तुम अनुभव करते हो, तो कहते हो, ‘ओह! ये अच्छा है। ये अच्छा नहीं है। मुझे ये चाहिये। मुझे वो नहीं चाहिये।’ तुम्हारी बुद्धि तय करती है। ये विवेक शक्ति है। मैं बोल रहा हूं और तुम्हारा मन कह रहा है, ‘ये बात मुझे पसंद नहीं है।’ या, ‘मैं ये बात मानता हूं।’ या, ‘मैं ये बात नहीं मानता।’ तुम अपने भीतर एक वार्तालाप कर रहे हो। ये बुद्धि है।और फिर, स्मृति वो है जो जानकारियों को संभाल कर रखती है। तो, कभी कभी कोई अनुभव करते हुये तुम्हें लगता है, ‘ओह! मैंने ऐसा अनुभव पहले किया है।’ अगर तुम एक सेब की मिठाई का मज़ा पहले ले चुके हो तो तुम कह उठते हो, ‘ओह! मैं पहले भी इसका मज़ा ले चुका हूं। मैंने ये सेब की मिठाई पहले भी खाई है।’ तो स्मृति का काम है अनुभव को पहचानना और उसे स्मृति में संजो कर रखना।फिर आया अहंकार। अहंकार है – ‘मैं कुछ हूं। मैं बुद्धिमान हूं। मैं मूर्ख हूं। मुझे ये पसंद है। मुझे वो पसंद नहीं है। मैं अमीर हूं। मैं बहुत ग़रीब हूं। मैं बदसूरत हूं। या, मैं सुंदर हूं। मैं कुछ हूं। मैं हूं,’ ये अहंकार है।जब तुम अहंकार को जान गये, तो कहोगे कि क्या बस इतना ही है? नहीं! अहंकार को जानने के बाद भी कुछ जानना बाकी है। वो क्या है? वो आत्मा है।अगली पोस्ट में आगे पढ़ियेगा॥


"विश्वास तुम्हारी चेतना के सभी बिखरे कणों को केन्द्रित करता है"

विश्वास और शकविश्वास से तुम में पूर्णता आती है। विश्वास तुम्हारी चेतना के सभी बिखरे कणों को केन्द्रित करता है। इससे तुम्हारा संपूर्ण व्यक्तित्व सुव्यवस्थित बनता है। शक से तुम बिखर जाते हो। शक से तुम नष्ट हो जाते हो।चिंताओं का बह जानाएक प्रयोग कर के देखो – जब तुम बहुत चिंतित हो, तनावग्रस्त हो, तब एक नदी या बहते हुये जलस्त्रोत्र के पास जाकर बैठ जाओ, और बस उस बहते हुये पानी को देखते रहो। तुम्हें पता है, कुछ ही क्षणों में तुम्हें एक खिचाव महसूस होगा, मानो तुम्हारा मन उस पानी के बहाव की ओर खिंचा चला जा रहा है...और कुछ ही देर में तुम्हारी चिंता, तनाव, जो भी तुम महसूस कर रहे थे पानी के बहाव में बह जाता है। तुम तरोताज़ा हो जाते हो।सभी स्तरों को प्रभावित करनाजब तुम ध्यान करते हो तो केवल खुद में ही समरसता नहीं ला रहो हो, तुम सृष्टि के सूक्ष्म स्तरों को, सृष्टि के अस्तित्व के विभिन्न स्तरों पर सूक्ष्म शरीरों को प्रभावित करते हो।मनुष्य शरीरहर मनुष्य के लिये, हर आत्मा के लिये बिना किसी शर्त के प्रेम में रहने की आशा है। तभी तो मनुष्य शरीर इतना मूल्यवान है – क्योंकि इस शरीर में रह कर तु में ये क्षमता है कि तुम सभी नकरात्मक वृत्तियों को मिटा सको।

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