Sunday 5 September 2010

अनुभव

क्रिस कपीला

क्रिस कपीला, सीऐटिल, अमरीका के एक सॉफ्टवेयर कन्सल्टेन्ट हैं।

वह विशेष कलीनेक्स -

            1993 की गर्मियों में, लेक जेनिवा (विस्कॉन्सिन) में आयोजित, गुरुदेव, के सान्न्ध्यि में हुए सप्ताह भर के कोर्स को करने के बाद हम लोग वैनकूवर (कनाडा) पहुँचे। कहने की जरूरत नहीं, पर फिर भी, वह कोर्स जीवन बदलने वाला था, अगर कहें कि कोर्स करके पुनर्जन्म हो गया तो गलत नहीं होगा।

            उस कोर्स में गुरुजी के आस-पास हर क्षण इतनी भीड़ होती थी कि मैं उनसे कुछ बोल ही नहीं पाता था। मुझे उनके साथ कुछ क्षण अकेले में बात करने की तीव्र इच्छा थी। परंतु शायद उस कोर्स में हर कोई यही चाहता था, और मुझे अपनी इच्छा की पूर्ति असंभव लगने लगी।

 

            वैनकूवर में, गुरुजी एक हिन्दू मंदिर में रविवार की प्रात: कालीन पूजा में प्रवचन देने गये। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद और लोग तो दोपहर का भोजन करने चले गये, पर मैं उनकी फ़ोटो खींचने की मंषा से वहीं खड़ा रहा।

 

            लगभग दस मिनट के बाद गुरुजी के साथ थोड़े से ही लोग थे, जो उनसे बात कर रहे थे। बाद में वे लोग भी चले गये और मैं अकेला, उनके साथ, उनके कमरे में रह गया।

 

            मैं संकुचाया सा वहाँ खड़ा था। गुरुजी उस हॉलनुमा कमरे में टहलते हुए कुछ वार्तालाप कर रहे थे। मेरे पास पहुँचते ही उन्होंने मुझसे पूछा कि मुझे कोर्स कैसा लगा। मैंने उनसे कहा कि मुझे कोर्स बहुत अच्छा लगा और उन्होंने मेरे और मेरे प्रियजनों के लिये अब तक जो कुछ भी किया, उसके लिये मैं बहुत कृतज्ञ हँ। यह कहते-कहते मैं फूट-फूट कर रो पड़ा। उन्होंने मुझे उनके पीछे-पीछे मंच तक आने का संकेत किया और वहाँ मुझे एक टिषू पेपर (क्लीनेक्स) दिया, जिसकी उस समय (कहने की जरूरत नहीं) मुझे बहुत ज़रूरत थी। यह मेरा पहला अनुभव था कि गुरुदेव कैसे हम में से प्रत्येक की छोटी से छोटी आवष्यकताओं के प्रति अपना ध्यान रखते हैं।

            उस पहली रूबरू मुलाक़ात के बाद मेरा जीवन बहुत बदल गया है। अब जीवन में केवल आनंद ही आनंद हैं, प्रेम ही प्रेम है।

और भजन फूट पड़ा - इरावती कुलकर्णी

इरावती, पुणे की एक प्रतिभाशाली गायिका हैं। इन्होने संस्कृत साहित्य में स्नातक किया है।

अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं कि मैं भजन कैसे बनाती हँ। मुझे संगीत की रचना करने का कोई अनुभव नहीं हैं और न ही मुझे इस क्षेत्र की कोई विशेष जानकारी है। और मैं उनके भजनों का माध्यम होने पर अपने आपको धन्य मानती हँ। पहला भजन जो मेरे माध्यम से निकला वह था 'परमेश्वरी जय दुर्गा' जो नवरात्रि के दौरान की गई एक विरह पूर्ण प्रार्थना के बीच उदय हुआ। मैंने बंगलोर आश्रम में नवरात्रि में होने वाली पूजाओं के विषय में बहुत कुछ सुन रखा था और मैं वहाँ जाना चाहती थी, पर जा नहीं पा रही थी। हाँलाकि मैं मुम्बई में थी पर मेरा मन आश्रम में था और ऐसी ही एक रात में नींद में मैंने यह भजन सुना। मैं मध्यरात्रि में ही उठ कर इस भजन को ज़ोर-ज़ोर से गाने लगी। शब्द और सुर दोनों मेरे नहीं थे। यह केवल दैवी कृपा थी जो मुझ पर हुई और इस प्रकार पहले भजन का जन्म हुआ।

इस वर्ष के शिवरात्रि उत्सव में, मैंने मन ही मन सत्संग के बीच में गुरुजी से प्रार्थना की कि वे मुझे एक भजन दें जिसे मैं उन्हें सुना सकूँ। कुछ मिनटों के अन्दर ही, एक शिव भजन का जन्म हुआ, और जैसे ही उस सत्संग में मैंने उसे गाना शुरू किया, गुरुदेव भी मेरे साथ गाने लगे। सभी आश्चर्य में उनकी ओर देख रहे थे कि इस भजन को तो पहली बार गाया जा रहा है फिर गुरुदेव कैसे इसके बोल जानते हैं ?

मेरे लिये तो गुरुजी माता, पिता मित्र, गुरु, यह सब कुछ तथा और बहुत कुछ हैं। उन्होनें मुझे अपूर्व साहस दिया है, मैं अपनी सीमितताओं से छूट गयी हँ। और उनकी कृपा, तथा असीमित प्रेम, दया व धैर्य से यह पूरी प्रक्रिया अत्याधिक सरल हो गयी है।

छः महीने बाकी - श्याम सदाना

श्याम सदाना हरियाणा भारत के एक उद्योगपति हैं। इनकी कई सफ़ल कंपनियाँ है। साथ-साथ उन्होंने अपने गृह राज्य में कई सेवा कार्यक्रम आरंभ किये है। 

जबसे मैंने जीवन के चौथे दषक में कदम रखा, तब से मैं हदय रोगी रहा। मुझे ऐंजाइना के साथ, उच्च रक्त चाप व हाइपरटेन्षन भी था जिसके कारण मुझे बहुत सावधानी व परहेज़ करना पड़ता था। अड़तालीस वर्ष की आयु में मुझे दिल का दौरा पड़ा और तब से ही मुझे काफ़ी दवाईयाँ लेनी पड़ती थी। छप्पन वर्ष की आयु में पहली बार मेरे हदय का ऑपरेषन हुआ जब मेरी धमनियाें में रूकावट (ब्लॉकेज) पायी गयी। फरवरी 1998 में जब मुझे साँस लेने में अत्याधिक कष्ट होने लगा, तब मैंने विस्तृत जाँच करवायी। परीक्षणों से पता चला कि मैं मृत्यु की दहलीज़ पर खड़ा हुआ था। सभी डॉक्टरो ने मुझे जीने के लिये केवल 6 महीने दिये थे। मुझे सीढ़ियाँ चढ़ने-उतरने, यहाँ तक कि कमरे से बाहर जाने से भी मना किया गया था। कुछ कदम चलते ही मैं हाँफ़ने लगता था।

अपनी इस अवस्था में मैंने मई 1999 में संडे नामक पत्रिका में बेसिक (अब पार्ट-1) कोर्स के बारे में पढ़ा। मैंने आर्ट ऑफ लिंविंग के बेसिक कोर्स के षिक्षक नित्यानन्द से संपर्क किया। मैंने उन्हें अपनी परेषानी से अवगत कराया और उसके अगले सप्ताह ही बेसिक कोर्स किया। कोर्स के बाद, मेरी हालत में ज़बरदस्त सुधार हुआ। मैं चल-फिर सकता था और मेरे स्वास्थ्य में भी काफ़ी सुधार हुआ।

मैं ऋषिकेष में एडवांस्ड कोर्स करना चाहता था, इसलिये जुलाई में मैं अपने डॉक्टर के पास अपनी जाँच कराने गया, ताकि जान सकूँ कि मैं सफ़र करने लायक हँ कि नहीं। मेरी जाँच करके मेरे डॉक्टर अचंभे में पड़ गये। उन्होंने मुझसे पूछा ''क्या यह वहीं दिल है जिसकी मैंने पिछले महीने जाँच की थी?'' मैं बोला ''हाँ, पर कुछ बदल गया है। मैं आपकी दवाईयाँ लेने के साथ साथ सुदर्र्षन क्रिया भी कर रहा हँ।'' यह सुनकर डॉक्टर साहब हँसने लगे।

एडवांस्ड कोर्स करने व गुरुदेव से मिलने से पहले ही मैं पूरी तरह स्वस्थ हो गया था। इस समय मुझे कोई भी तकलीफ़ नहीं है। मैं जर्मनी जाकर बर्फ से ढकी पहाड़ी ढलानाें पर चल आया हँ। मैं, जिसे जीने के लिये मात्र छह महीने दिये गये थे, वह भी एक पेड़ के सूखे तने की तरह, अब पिछले तीन साल से एक सामान्य जीवन जी रहा हैं। यह सब केवल गुरु कृपा है, कुछ और नहीं।

 

कार्यक्रम परिवर्तन - मधु राव

श्री मधु राव, हांगकांग के निवासी हैं। वे शांगरीला होटेल्स एण्ड रिज़ौर्टस, हांगकांग के मुख्य वित्तीय अधिकारी हैं 

अगस्त 2000 में मेरी पत्नी संध्या टीचर्स द्रेनिंग कोर्स के लिये बंगलोर गई थी। कुछ दिन बाद, उनके पिता, जिन्हें पहले भी लकवे के दौरे पड़ चुके थे, को एक और दौरा पड़ा। वे पूरी तरह से बिस्तर पर पड़ गये थे, हाथ पैर ठीक से चला नहीं पा रहे थे, लोगों को पहचान नहीं पा रहे थे और किसी की बातचीत भी नहीं समझ पा रहे थे। उनके लकवे के इतिहास को देखकर, डॉक्टर असमजंस में थे कि वे जीवित बचेंगे अथवा नही। मैं मानसिक द्वंद की स्थिति में था। अगर मैं संध्या को बताता, वो वह कोर्स छोड़ कर अपने पिता के पास चली आती, और अगर मैं न बताता, तो मैं अपनी दृष्टि में दोषी बन जाता।

 अंत में मैंने आश्रम फ़ोन कर गुरुजी के लिये एक संदेष छोड़ा और उनके उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। मुझे उत्तर मिला कि 'वह चाहे तो अपने पिता के पास जाये और फिर लौट कर आ जाये।' तब हमने संध्या को यह समाचार बताने का निर्णय किया। समाचार तथा गुरुजी का परामर्ष सुनने के बाद गुरुजी में अपनी अटूट आस्था के चलते संध्या को विष्वास हो गया की उनके पिता के साथ सब ठीक होगा। उन्होंने अपने पिता को फ़ोन किया, और आष्चर्य, वे उनकी आवाज़ पहचान गये। गुरुजी पर अपने पिता का दायित्व सौंप कर उन्होंने अपने प्रषिक्षण पर पूरा ध्यान लगाया। उनके पिता, जो पूरी तरह बिस्तर पर पड़े हुए थे, और शौचालय भी जाने में असमर्थ थे, अगले दो तीन दिन में आष्चर्यजनक प्रगति करने लगे और हफ्ते भर में ठीक हो गये। इस एक हफ्ते में ही उनमें इतनी शक्ति आ गई कि वे सपरिवार गुरुजी को अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने व आषीर्वाद लेने आश्रम पहुँच गये, और व्यक्तिगत रूप से गुरुजी से मिले। मैंने हौंगकौंग में, नवम्बर 1998 में बेसिक कोर्स किया था। विष्व भर में कई व्यक्तियों की तरह, मुझे भी कोर्स में एक ऐसा सुंदर अनुभव हुआ जो शब्दो में व्यक्त नहीं किया जा सकता। कुछ महीनों बाद, 1999 के आरंभ में, मुझे एक सपना आया जिसमें मैं गुरुजी से मिला और उन्होंने मुझे प्रेमपूर्वक गले से लगा लिया। अप्रैल 1999 के आरंभ में, मैंने सुना कि गुरुजी सिंगापुर में कुछ समय के लिये पधारेंगे। मैं अपनी पुत्री व एक संबंधी के साथ, उनके दर्षन के लिये, सिंगापुर पहुँचा। वे भक्तों से घिरे हुए थे और मैं कुछ ही समय के लिये उनसे मिल पाया। पर उस पहली मुलाक़ात नें मुझमें उनसे और मिलने की इच्छा जगा दी।

 उसी साल मई में, हमारी कम्पनी ने निवेषकाें से मिलने के लिये यूरोप व अमरीका में रोड षो करने की योजना बनाई। यह रोड षो, अगले महीने यानी जून से शूरू होने वाले थे। उसी समय, संयोगवष, मैंने अपने एक मित्र से सुना कि गुरुजी अमरीका में लेक टाहो जाने वाले थे। हमारा अधिकारिक पूर्व नियोजित कार्यक्रम, न्यूयॉर्क व बोस्टन में था, और हौँग कौग लौटते हुए बीच में कुछ समय के लौस ऐंजिलिस भी रुकना था। चूँकि लेक टाहो का इलाका लौस ऐंजिलिस से बहुत दूर था, मैं निराष हो गया। मुझे लगा कि अगर वहाँ कि बजाय सैन फ्रांसिस्को में मीटिंग होती तो अच्छा रहता क्योंकि वहाँ से लेक टाहो थोड़ी ही दूर है। मैंने अपनी यह इच्छा गुरुजी को समर्पित कर दी।

 उसी दिन के बाद, अचानक, हमारे निवेष सलाहकारों ने कहा कि वे लॉस ऐंजिलिस के बजाय सैन फ्रांसिस्को मीटिंग करना ज्यादा पंसद करेगे। बस, मुझे मौका मिल गया।

 मुझे गाड़ी चलाना नहीं आता था। मैं सोचने लगा कि लेक टाहो तक जाने के लिये किराये पर वाहन ले लूँ। तभी मुझे याद आया कि हमारे सी.ई.ओ. नें भी बेसिक (अब पार्ट-1) कोर्स किया था, क्यों न उनसे पूछ लूँ कि क्या वे गुरुजी से मिलना चाहेंगे ? वे सहर्ष मान गये और मेरे बिना पूछे ही उन्होंनें मुझे अपनी गाड़ी में साथ चलने को कहा।

 जब हम लेक टाहो पहुँचे, हमारा स्वागत ताईपेई की कुमारी ऐलिस जेन ने किया। उन्होंने बताया कि गुरुजी हमारे आने की उम्मीद कर रहे थे। कुछ और भक्तों के साथ हम उनके कुटीर पहुँचे। मुझे बिलकुल गुरुजी के बगल में बैठने का अवसर प्राप्त हुआ। फिर मैं आष्चर्यचकित रह गया जब गुरुजी ने मेरी मातृभाषा तेलगू में मुझसे बात की। मुझे उनसे बात करने में बहुत सहूलियत हुई। फिर उन्होंने हम सबको एक छोटा सा ध्यान कराया। जब हम लोग उठकर जाने बाले थे, तब गुरुजी ने बड़े प्रेम के साथ मुझे गले से लगा लिया, ठीक वैसे ही जैसा कि मैंने कुछ महीने पहले सपने में देखा था। मैं अपनी खुषी छुपा नहीं पा रहा था। उनकी ऑंखों का भाव तथा उनके रोम-रोम से प्रफुल्लित होते प्रेम का अनुभव ऐसा था जो मुझे पहले कभी नहीं हुआ। मैं समझ गया कि मैं मनुष्य रूप में दिव्यता का साक्षात अनुभव कर रहा हँ।

 

 

वासन्थी

वासन्थी

            एक प्रतिष्ठित आय्यन्गर परिवार की वासन्थी, यू.एन.आई. के ब्यूरो प्रमुख श्री नारायणन की पत्नी हैं। बंगलौर आने से पहले वे कई वर्षों तक सिंगापुर में रह चुकी हैं।

 

क्लिप ग़ायब!

            कुछ वर्ष पहले मुझे ऑपरेषन के द्वारा अपना गर्भाषय निकलवाना पड़ा। जिस डॉक्टर ने ऑपरेषन किया था, उसने ऑपरेषन करने में मेरे गुर्दे को नुकसान पहुँचाया जिसके कारण सर्जरी के बाद भी मेरा दर्द गया नहीं बल्कि तीन महीने में और बढ़ गया। मैंने और अच्छे इलाज के लिये भारत आने का निष्चय किया। यहाँ पर जाँच से पता चला कि पहले वाले ऑपरेषन में डॉक्टर मेरे उदर क्षेत्र में एक छोटा क्लिप छोड़ कर भूल गये थे। यहाँ के डॉक्टरों ने फिर से सर्जरी कर के मेरे उदर क्षेत्र से वह क्लिप निकालने का निष्चय किया। मैंने सोचा कि गुरुजी के जर्मनी से लौटने के बाद उनके दर्षन करने के बाद ऑपरेषन करवाऊँगी।

            मैं सर्जरी के लिये अपने आप को मानसिक रूप से तैयार कर चुकी थी क्याेंकि दर्द बढ़ता ही जा रहा था। मैंने फ़ोन से गुरुजी से बात की और उन्होंने मुझे एक घ्यान करने को कहा। एक सप्ताह बाद, मैं ऑपरेषन से एक दिन पहले अपनी जाँच करवाने गई। अगले दिन गुरुजी लौट आये और अपनी रिपोर्ट लेने से पहले मैं आश्रम में पूजा में चली गई। जब मैं रिपोर्ट लेने पहुँची तो डॉक्टरों को आष्चर्यचकित पाया। वह क्लिप ग़ायब हो चुकी थ्ीा।

भक्ताें के आनन्द :

गुरुजी से मेरा संपर्क 1988 में हुआ। उस समय मैं कई स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से ग्रसित थी, जैसे रीढ़ में कष्ट, स्पॉनडिलाइटिस, साँस की तकलीफ़। हृदय पर इस सब का बहुत दबाव पड़ रहा था और डॉक्टरों ने कहा था कि इस हालत में मैं 6 महीने से ज्यादा जीवित नहीं रह पाऊँगी। मैं अवसाद की स्थिति में थी और मेरे परिवार की भी चिंता बढ़ रही थी।

            मैं रोज़ श्री कृष्ण भगवान से प्रार्थना करती थी। एक दिन मैं बैठी और प्रार्थना की कि वे अब मुझे ले जायें- मैं 6 महीने भी जीना नहीं चाहती थी। जब मैं प्रार्थना कर रही थी तो मुझे एक दर्षन हुआ। ऐसा लगा जैसे बारिष हुई हो और एक लगभग दस साल का लड़का, सफ़ेद कपड़े पहने हुए, मेरी तरफ़ अपना हाथ बढ़ाये खड़ा था। मैं एक अंधेरे कुएँ में थी और उस बालक ने अपना हाथ बढ़ाकर मुझसे उसे पकड़ कर ऊपर आने को कहा। मैं उसका हाथ पकड़ने की नाकाम कोषिष कर रही थी, कि उसने दोनों हाथों से मुझे उठा कर ऊपर खींच लिया। मैं इतना हल्का और आनंदित महसूस कर रही थी कि मैंने सोचा कि ईष्वर मुझे यहाँ से ले गये हैं। एक या दो घंटे बाद मैंने अपनी ऑंखें खोली और अपने आप को इसी दुनिया में पाया।

            उस अनुभव के दो दिन के अंदर ही सिंगापुर में भारतीय उच्चायोग के एक कर्मचारी के घर पर एक सत्संग होना था जिसमें मुझे निमंत्रण मिला था। जब मैं वहाँ पहुँची तो ऐसा लगा कि वहाँ लोग किसी की प्रतीक्षा कर रहे थे, किसी योगी की। मैं किसी से बात नहीं करना चाहती थी। दरवाजा खुला और अचानक गुरुदेव बाहर निकले और मैंने सोचा 'कल तो आप मेरे साथ थे, और आज आप यहाँ है।' मुझे अपने अंदर एक अजीब से आनन्द की अनुभूति हुई। मुझे लगा ''यही मेरे कृष्ण है।'' मैं उन्हें अपने बारे में बताना चाहती थी। मै चाहती थी की वे मेरे विषय में तथा मेरे अनुभव के विषय में जाने। सत्संग के दौरान वे किसी बात पर चर्चा कर रहे थे, मेरी तरफ देख कर बोले 'क्यों वासन्ती, समझ में आया ?'

            मेरे लिये बेसिक कोर्स काफ़ी कठिन और कष्टदायी था, पर कुछ समय बाद मुझे अच्छा लगने लगा और शरीर में कुछ बदलाव महसूस हुआ। मैंने अपनी पीठ से बेल्ट व गले से कॉलर हटा दिया जिसके कारण मैं ठीक से साँस लेने लगी। उसके बाद जल्दी ही मैं आश्रम गई और उन्नीस दिन वहाँ रही। गुरुजी की कृपा से मैं उस समय में बिलकुल ठीक हो गयी और बिलकुल नयी होकर लौटी। मैं तृप्त हो गई। मानसिक अथवा किसी भी अन्य स्तर पर, मैं पुरानी वाली वासन्ती नहीं थी। ये मेरे लिये सचमुच एक चमत्कार था।

            गुरुदेव से संपर्क में आने से पहले, शारीरिक स्तर पर मैं ठीक से साँस भी नहीं ले पाती थी, बिलकुल भी नहीं। मैं बहुत अधिक भावुक स्वभाव की थी। मानसिक स्तर पर मुझे अपने संबंधियो के कारण काफी कठिन क्षणों का सामना करना पड़ा था। पर आश्रम में बिताये उन उन्नीस दिनों में मैं पूरी तरह बदल गयी थी। मेरे पति व परिवार वालों ने मुझमें आये इस बदलाव को देखा और फिर वे भी जुड़ गये।

            पहले मैं अपने में ही रहती थी और लोगाें से मिलना पसंद नहीं करती थी। आज मैं विष्व भर में कोर्स लेती हँ। बहुत आष्चर्य होता है यह देख कर कि अब मैं केैसे हर जगह घर जैसा ही अनुभव करती हँ और लोगों से मिलकर मुझे कितनी खुषी होती है। मैं जहाँ भी जाती हँ अपने आपको मार्गदर्ष्ाित व रक्षित अनुभव करती हँ।

            ऑस्टे्रलिया से, हाल ही में कोर्स लेते समय कई लोगों को गुरुजी की उपस्थिति का आभास हुआ। यह बस, आष्चर्यजनक था। पर्थ में एडवांस्ड कोर्स के बाद हम 6 लोग ंकिंग्स पार्क नाम के एक उद्यान में गये। पार्क से आप नीचे बहती हुई 'स्वान' (हंस) नदी की ओर देख सकते हैं। लगभग शाम के 6:30 बजे थे, नदी के ऊपर एक नीली रोषनी थी। हमने सोचा कि यह पानी के ऊपर एक प्रतिबिम्ब है, पर वह बढ़ती रही और हम इस रोषनी को आसमान में भरते हुए देख सकते थे। तभी पानी में हमें श्वेत वस्त्र पहने गुरुजी की छवि उभरती दिखाई दी। हम उनके केष व उनकी ऑंखे देख सकते थे और यह भी कि वह छवि पीछे मुड़ी और हमारी ओर देखने लगी। मन में एक विस्तार हुआ। वह एक गहरा अनुभव था।

            लोग मुझसे पूछते हैं कि मैं 'उन्हें' किस रूप में देखती हँ, विष्णु, देवी, गणपति, या जीसस, या कुछ और ? मेरे हृदय में दिव्यता के इन सभी स्वरूपों के लिये प्रेम है। यह अभी शक्तियाँ गुरुजी के रूप में एक हो गयी हैं। और मज़े की बात यह है कि आप उन्हें छू सकते हैं, उनसे बात कर सकते हैं, उनकी अनुभूति भी कर सकते हैं । उनके परे कुछ भी नहीं है। यह मेरे जीवन का सबसे बड़ा चमत्कार है।

            जहाँ भी आप जायें, पथ आपके लिये बिछा हुआ है और जीवन बड़ा सरल हो जाता है। यह टीचर होने का एक बड़ा अनुभव है। यह उनके प्रेम की शक्ति है जो आस्था या किसी और भाव से बढ़कर है।

चित्र का कमाल - हसन हेलिलियन

हसन एक बहुआयामी व्यक्तित्व के मालिक हैं । युवावस्था में वे ईरान में क्रांतिकारी थे। बाद में वे कैनाडा चले गये और वहाँ टैक्सी चलाते हैं।

सारा दिन काम करने के बाद मुझे, सुबह सुबह एक ग्राहक मिला। उसे काफ़ी दूर तक यात्रा करनी थी पर वह केवल पचास डॉलर ही देने को तैयार था। मैंने उसे बताया कि ऐसा करना मेरे लिये सम्भव नहीं था और मुझे मीटर तो चालू करना ही पड़ेगा। वह उस समय मान तो गया, पर जैसे ही हम लोग हाईवे पर पहुँचे, वह मुझे गालियाँ देने लगा। मुझे गुस्सा आ गया और मैंने गाड़ी रोक दी। वह एक पल के लिये शांत हो गया, फिर उसने बंदूक निकाली और कहा ''मैं तुम्हे गोली मार सकता हँ, तुम्हे जान से मार सकता हँ, मुझसे गड़बड़ न करो।''

एक पल के लिये तो मैं भय से जड़ हो गया। मुझे अपने माथे पर पसीने की बूंदें व सीने में जकड़न का एहसास हुआ। तभी मेरे मन में एक दृढ़ भावना उठी कि मुझे कोई हानि नहीं पहुँच सकती, क्योंकि मेरे गुरु हमेशा मेरे साथ हैं। मैंने मन ही मन एक प्रार्थना की।

वह आदमी मुझ पर लगातार चिल्ला रहा था, तभी उसकी निगाह डैश बोर्ड पर गुरुजी के चित्र पर पड़ी। वह मन ही मन कुछ बुदबुदाया और फिर शांत हो गया। कुछ समय बाद उसने मुझसे पूछा ''यह आदमी कौन है?''। मैं मुड़ा और सीधा उसकी आँखों में देखा, फिर बोला ''यह मेरे गुरु हैं।'' अचानक ही वह नरम पड़ गया, उसने अपने हाथ जोड़े और पहले चित्र को फिर मुझको प्रणाम किया। उसने यह कई बार किया और बोलता रहा ''मैं बहुत शर्मिन्दा हँ।'' गंतव्य पर पहँच कर उसने न केवल मुझे पूरा किराया दिया बल्कि, मुझे काफ़ी बख्शीश भी दी।

 

धड़कन चलती रही............ -डॉ. रमोला प्रभु

मेरीलैण्ड, संयुक्त राज्य अमेरीका की डॉ. रमोला प्रभु (एम.डी.) सुदर्शन क्रिया के प्रभावों पर होने वाले चिकित्सा अनुसंधानों से सक्रिय रूप से जुड़ी हुई हैं।
एक बार गुरुजी दोपहर में वांशिगटन से लॉस ऐंजिलीस जाने वाले थे। मेरे पति गणेश को भोर के समय गुरुजी के साथ क्रिया करने की अनुमति मिल गयी थी जिसे लेकर वे काफ़ी उत्साहित थे। डरते हुए उन्होंने पूछा कि क्या वे गुरुदेव के दिल की धडकन को क्रिया के दौरान नाप सकते है ? उन्होंने आधे घंटे तक, क्रिया के दौरान, गुरुजी के दिल की धड़कन मापी और बाद में मशीन को गुरुजी के शरीर से अलग कर गाड़ी में रख दिया, क्योंकि सभी लोग हवाई अड्डे जा रहे थे। शाम को मैंने उनसे सुबह के परीक्षण के विषय में पूछा तो पता चला कि वे मशीन को कमरे में ही भूल आये थे। वे भागे-भागे दफ़तर गये और उनके आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही जब उन्होंने देखा कि मशीन तब भी चल रही थी, मानो गुरुजी से अभी भी जुड़ी हुई हो। तभी अचानक, ठीक सात बजे, मशीन बंद हो गई।
जब गणेश ने क्रिया के दौरान गुरुजी की धड़कन का ग्राफ देखा तो पाया कि गुरुजी को धड़कन पहले 40 फिर 20 प्रति मिनट की दर पर आ गई थी और अंत में 20-30 सेकंडो तक तो शून्य हो गई (बंद हो गई)। तीन बार ऐसा हुआ कि क्रिया के दौरान 20-30 सेकंड के लिये गुरुजी की धडकन बंद हो गई। गणेश ने उत्साहित हो कर गुरुजी को अपने एक मित्र के मोबाइल पर फ़ोन करके पूछा कि सात बजे क्या हुआ था ? गुरुजी हँसे और बोले ''अरे, सात बजे मैं लॉस एंजिलीस पहँचा था।''

रहस्यमय व्यक्ति:-
मेरा प्रतिदिन अब जीवन के चमत्कारों से भर गया है। अच्छी तरह याद है वे दिन जब मेरा जीवन आषारहित व दु:ख से भरा था। उस समय बर्फ पर फिसल जाने से लगी चोट से मुझे अपने व्यक्तिगत जीवन के विषय में चिंतन करने का समय मिला। मैंने निष्चय किया कि मुझे अपने व्यस्त जीवन से कुछ विश्राम लेना होगा। उसी दौरान गुरुदेव की षिक्षा से मेरा परिचय हुआ।

मेरा पीठ-दर्द लगभग पूरी तरह से ठीक हुआ और मेरे चिड़चिड़ेपन में काफ़ी कमी आयी। गुरुदेव ने मुझे जीने का एक मकसद व जीवन के हर पक्ष के मूल्य को समझना व उचित सम्मान देना सिखाया। मेरे जीवन का हर क्षण उनके प्रति एक अर्पण बन गया।
यांति और उल्लास से जीवन का हर क्षण चमक उठा। अभी भी मुझे याद है जब न्यू यॉर्क में सुबह चार बजे फ़ोन की घंटी बजी थी। फ़ोन मेरीलैण्ड के दुर्धटना संकाय की एक नर्स का था। उसने बताया कि हमारे बेटे को एक कार दुघर्टना में कनपटी पर बहुत गहरा घाव लगा था और उसका operation करना पड़ा था। नर्स ने हमें विष्वास दिलाया कि हम बड़े भाग्यषाली माता-पिता हैं और अपने बेटे को घर ले जा सकते हैं। हमें तो इस बात पर विष्वास ही नहीं हो रहा था और हम बस काँपते हुए सुनते रहे। मेरे पति और दोनों बेटियाँ जिस दिन हमारे बेटे गोकुल को घर लाए उसी दिन गुरुजी न्यू यॉर्क पधारे।
आष्चर्यजनक रूप से, जिन लोगाें को गुरुजी को लेने आना था उन्हें आने में बहुत देर लगी और मैंने अपने आपको गुरुदेव के साथ हवाई-अड्डे पर अकेला खड़ा पाया, जैसा मैं चाह रही थी इससे पहले कि मैं कुछ बोल पाती उससे पहले गुरुजी बोले ''गोकुल का ऐक्सिडेंट हो गया न ? चिंता न करो, सब कुछ ठीक हो जायेगा।'' मैं तो बस रो पड़ी।
बाद में गोकुल ने बताया कि एक गाड़ी गलत दिषा में उसकी ओर आ रही थी। घना अंधेरा होने के कारण उससे बचाने की कोषिष में वह एक खम्भे से टकरा गया। उसके शरीर का दाहिना हिस्सा पूरी तरह खून से तर हो गया था। जैसे ही वह उठने की कोषिष करता, चक्कर खाकर गिर पड़ता था। तभी कहीं से एक आदमी आया और उसने गोकुल से पूछा कि क्या उसे मदद की जरूरत है ? कोई गाड़ी नहीं, कोई रोषनी नहीं, कोई और आवाज़ नहीं, बस यही आदमी जो मदद की पेषकष कर रहा था। जल्दी ही पुलिस आ गई और गोकुल को हेलिकॉप्टर द्वारा अस्पताल ले जाया गया।
मैंने अगले दिन पुलिस स्टेषन से उस आदमी के बारे में जानना चाहा तो वे बोले कि वहाँ तो कोई भी नहीं था, और किसी ने फ़ोन भी नहीं किया था '' उस अंधकार में वह कौन था जिसने गोकुल की सहायता की ? मुझे तो किसी उत्तर की आवष्यकता नहीं थी और गुरुजी की मेरे परिवार के ऊपर कृपा पर मेरे विष्वास की पुष्टि हुई।

रोगों का उपचार:-
कुछ वर्ष पूर्व मेरी चाची के गले में एक बहुत बडा टयूमर हो गया। डॉक्टरों को समझ में नहीं आ रहा था कि उसकी जड़ कहाँ है, जिससे उन्हें पूरे शरीर में रेडियेषन व कीमोथेरेपी करवानी पड़ी। डॉक्टरों ने उन्हें जीने के लिये केवल 6 महीने का ही समय शेष है, ऐसा बताया। मेरे चाचा और चाची ने यूरोप में अपने पोते-पोतियों के साथ कुछ समय बिताने का निष्चय किया। मैंने उनसे अमरीका में हम लोगों से मिलने आने को कहा। वे बाल्टीमोर आये। उसी दौरान हमारे घर पर एक बेसिक कोर्स शुरू होने जा रहा था। उन दोनों ने वह कोर्स किया। सुदर्षन क्रिया के दौरान मेरी चाची गले में जलन की षिकायत करती थीं, पर किसी तरह उन्होंनें उस कोर्स को पूरा किया। उसके बाद वे दोनों भारत लौट गये। सात साल बीत चुके है, मेरी चाची जीवित और स्वस्थ है और नियमित रूप से क्रिया करती हैं। आजकल वे अपने इलाके के गरीब बच्चों के लिये एक स्कूल चलाती हेैं।
केटी (असली नाम गुप्त रखा गया है), एक महिला जो कि पचास साल के लगभग आयु की हैं, को 'सिस्टेमिक लूपस' की बीमारी थी। लगभग तीस वर्षो से वे इस बीमारी से पीड़ित थीं जिसके फलस्वरूप उनका शरीर जैसे खोखला हो गया था। उनके दोनों गुर्दे खराब हो चुके थे और ऑपरेषन कराके उन्होंने एक गुर्दा प्रतिरोपित कराया था। इसी प्रतिरोपित गुर्दे में उनका जीवन चलता था। उनके शरीर के सभी महत्वपूर्ण जोड़, धातु अथवा प्लास्टिक के अंगो द्वारा बदले गये थे (दोनाें ऐड़ियाँ, दोनाें कूल्हे, दोनों घुटने, दोनों कलाइयाँ)। बाल्टीमोर के शेरटन होटल में जब गुरुजी एक वार्ता दे रहे थे तो केटी उन्हें सुनने वहाँ गई। उसके एक हफ्ते बाद उन्होंने बेसिक कोर्स किया और एक महीने बाद कैनडा में गुरुदेव के सान्निध्य में एडवांस्ड कोर्स भी किया। इससे उन्हें कुछ लाभ अवष्य हुआ होगा क्योंकि इसके बाद उन्हाेंने बहुत से एडवांस्ड कोर्स किये और फिर एक डी.एस.एन. कोर्स भी किया। समकालीन चिकित्सा विज्ञान के अनुसार यदि देखा जाये तो केटी को दी जाने वाली दवाआें के साइड इफेक्ट से ही उन्हें पंगु होकर बिस्तर पकड़ लेना चाहिये था। परंतु गुरु कृपा व नियमित साधना से वह आज काम पर जाती है और एक भी सत्संग नहीं छोड़ती हैं।
डॉन नामक एक व्यक्ति को धूम्रपान व मद्यपान की बुरी लत थी। वे किसी की भी बात नहीं सुनते थे और अपनी लत नहीं छोडते थे। एक दिन गॉल्फ खेलते वक्त उन्हें एक बड़ा दौरा पड़ा और वे वहीं गिर गये। उसके बाद वे अपनी नौकरी छोड़ अपनी पत्नी व जवान बेटे के साथ कैलिफ़ोर्निया में रहने आ गये। कुछ महीनाें बाद उन्हाेंने फ़ोन करके कहा कि वे उस ''साँस वाली चीज़'' को सीखना चाहते हैं। उनके आधे शरीर को लकवा मार चुका था और वे किसी तरह अपनी पत्नी के साथ कोर्स करने पहुँचे। कुछ सप्ताह बाद डॉन ने फ़ोन करके बताया कि वे चलने लगे हैं। इसके एक महीना बीतने के बाद डॉन की पत्नी ने फ़ोन किया, उनकी खुषी की सीमा न थी। डॉन ने धूम्रपान और शराब छोड़ दिये थे, वे फिर से गॉल्फ खेलने लगे थे।

 


श्री श्री और SIMI -एक संवाद

श्री श्री और SIMI -एक संवाद
स्वामी सद्योजाथः और हरीश रामचंद्रन द्वारा

एक रूढिवादी की मानसिकता कैसी विस्मयपूर्ण होती है? वह क्या है जो उनको वैमनस्य की तरफ उकसाता है? कुछ समय पूर्व हमें Art of Living के प्रणेता परम्पूज्य श्री श्री रवि शंकर जी और कुछ SIMI (Student Islamic Movement of India) के कार्यकर्ताओं के मध्य हुई वार्तालाप को सुनने का अवसर प्राप्त हुआ. इतने समय पूर्व हुए वार्तालाप से भी आज के परिपेक्ष में हम बहुत कुछ सीख सकते हैं.

इस लेख की पृष्ठभूमि श्री श्री रवि शंकर जी का केरला का दौरा है जो कि दिसम्बर 2000 के पहले सप्ताह में हुआ था. केरला के विभिन्न शहरों में श्री श्री के आगमन पर आनन्दोत्सव का आयोजन किया गया था. आनन्दोत्सव में लाखों लोगों के सम्मेलन की व्यवस्था के लिए केरला के आयोजक पूर्णतः कार्यशील थे. कई माह पूर्व से आर्ट ऑफ लिविंग के सैकड़ों स्वयंसेवक पूरे जोश के साथ तैयारी में जुटे हुए थे. पर आयोजन के केवल एक सप्ताह पूर्व समाचार पत्र में SIMI द्वारा 6 दिसम्बर को (जो बाबरी मस्जिद का ध्वस्तीकरण का दिन था) पूरे केरला में बंध का ऐलान कर दिया गया. इसी 6 दिसम्बर को त्रिसूर में जो केरला की सांस्कृतिक राजधानी है आनन्दोत्सव का आयोजन होना था. पुलिस ने भी आगाह किया कि उनको बम विस्फोट की धमकियाँ मिली हैं. श्री श्री ने व्यवस्थापक समिति के अध्यक्ष श्री जेवियर के संपर्क करने पर कहा ''सत्संग तो होगा.''

समाचार पत्रों में कार्यक्रम को स्थगित करने की घोषणा और पुलिस द्वारा दी गई अनुमति वापस लेने के बावजूद भी 6 दिसम्बर को एक लाख से अधिक व्यक्ति सत्संग में सम्मलित हुए. अगले दिन श्री श्री ने SIMI के नेताओं से मुलाकात रखी.

SIMI के चार नेताओं एक व्यवस्थापक के घर मुलाकात करने आए. उनके आने से हॉल में तनाव महसूस होने लगा जहाँ सैकड़ों भक्त श्री श्री से मिलने के लिए इन्तजार कर रहे थे.

नसीब, आर्ट ऑफ लिविंग का एक भक्त उन नेताओं को लेकर उस कमरे में आया जहाँ हम लोग श्री श्री के साथ बैठे थे.

SIMI के नेता 22-24 वर्षीय हट्टे-कट्टे युवक थे जिनमें से एक अपने हाथ में कुरान-ए-पाक लिए हुए था. वे सख्त और निष्ठुर लग रहे थे. उनकी भीतरी आग और हठीलापन जता रहा था कि वे श्री श्री की हर बात को काटेंगे और तर्क वितर्क करेंगे.

श्री श्री अपने सहज प्रफ़ुल्लित स्वरुप में थे। वाद विवाद के लिए मंच तैयार था जिसमें एक ओर थे असंयमी, उध्दत, अधीर आदर्शवादी, अपनी श्रेष्ठता सिध्द करने के लिए तत्पर युवक और दूसरी ओर शांत, सौम्य, ज्ञान की गहराइयों में डुबकी लगाए हुए सिध्द पुरुष. कमरे में बैठे हम सभी लोग यह जानने के लिए बहुत उत्सुक थे कि श्री श्री इन तेज तर्रार युवकों से कैसे निपटेंगे. श्री श्री ने उनको गले लगाकर बैठने का निमंत्रण दिया. श्री श्री की सहजता में लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं था. कोई भी इन युवकों श्री श्री के भक्त समझने की भूल कर सकता था. केवल एक ही अन्तर था कि वे चारों कुर्सी पर बैठे थे और बाकी हम सब भक्त नीचे जमीन पर. हम सभी के लिए श्री श्री के निस्वार्थ प्रेम को अनुभव करने का एक और अवसर था.

दल के नेता ने बोलाः
SIMI - आप हमसे मिलना चाहते थे?

श्री श्री – हाँ - हम जानना चाहते थे कि आपकी संस्था को आनन्दोत्सव से क्या विरोध है?

SIMI -हमको लगा कि 6 दिसम्बर का आनन्दोत्सव हमारी मजहबी जज़बातों को जानबूझ कर तौहीन पहुँचाने के लिए किया गया है. क्या आप हमारे मजहब के बारे में कुछ भी जानते हैं? क्या आप कुरान में जरा भी यकीन रखते हैं?

श्री श्री – हाँ-अवश्य.

SIMI – (उनको इस उत्तर की अपेक्षा नहीं थी. कुरान की ओर इशारा करते हुए उन्होंने अगला सवाल किया) हमारा मानना है कि ज्ञान केवल कुरान में ही है. आपको क्या लगता है?

श्री श्री - यह ज्ञान समय समय पर मनुष्य के सामने प्रकट हुए विभिन्न ज्ञानों में से एक है.

SIMI - पर अल्लाह के मुताबिक यही इकलौता इल्म है. कुरान का बताया रास्ता ही इकलौता रास्ता है, दूसरा और कोई रास्ता नहीं है.

श्री श्री - यह संदेश तो सभी धर्मग्रन्थों में है - वेदों में कहा गया है ''नान्यः पन्थाः अन्याय: विद्यते.'' अर्थात सत्य के सिवाय कोई भी अन्य मार्ग नहीं है. बाइबिल में भी यही कहा गया है. जीसस कहते हैं, ''परमपिता ईश्वर तक पहुँचने के लिए मुझसे होकर गुजरना होगा. मैं ही एकमात्र रास्ता हूँ.''

SIMI - पर हमारा मजहब कहता है कि बुतपूजा बुरी है, कुफ्र है.

श्री श्री - अच्छा और बुरा आखिर है क्या? यह सापेक्ष है. इस सापेक्ष अस्तित्व में कभी पूर्णता नहीं होती. जैसे दूध लाभदायक है पर अत्यधिक दूध घातक हो सकता है. विष हानिकारक होता है - परन्तु बूँदमात्र विष जीवनदायक हो सकता है. अधिकतर जीवनरक्षक दवाइयों पर ''विष'' लिखा होता है. यह सभी ना ही पूर्णतः अच्छे हैं और ना ही पूर्णतः खराब. वह तो बस ''है''. सत् द्वैत के परे है. ईश्वर ही सम्पूर्ण और इकलौता सत् है. तो इसमें निष्ट-अनिष्ट के लिए जगह ही कहाँ है?

SIMI - फिर भी आप हिन्दु लोग अनेकों देवी देवताओं को पूजते हैं जबकी हमारे यहाँ बस एक खुदा है जिसके पैगाम से ही जन्नत तक पहुँचा जा सकता है.

श्री श्री - अलग अलग रुपों में एक ही परमात्मा है

SIMI - (व्याकुल होकर श्री श्री को बीच में ही काटते हुए) पर कुरान कहता है कि हमें केवल निराकार अल्लाह की इबादत करनी चाहिए जबकि हिन्दु पत्थर की मूर्ति की पूजा करते हैं.

श्री श्री - (इस पर श्री श्री ने अचानक उनसे पूछा) - क्या आप कुरान की इज्जत करते हैं?

SIMI -(इस प्रश्न से कुछ भौंचक्के से प्रतीत होते हुए) हाँ, यह तो अल्लाह का पैगाम है.

श्री श्री - क्या आप मक्का का आदर करते हैं?

SIMI – हाँ, वह तो हमारे लिए पाक जमीन है.

श्री श्री - इसी तरह हिन्दु भी भगवान की रचना को भगवान की तरह पूजते हैं. जैसे कुरान, ईद का चाँद, काबा, रमजान का महीना आप के लिए पाक है उसी तरह हिन्दुओं के लिए गंगा, हिमालय, ॠषि मुनि आदि पवित्र हैं.देखिए जैसे आपकी बेटी की फ़ोटो आपकी बेटी नहीं है फिर भी आप फ़ोटो को चाहते हैं. क्या फ़ोटो देखकर आपको अपनी बेटी की याद नहीं आती?

SIMI - (सब कहते हैं) हाँ.

श्री श्री - उसी प्रकार प्रतीक भगवान नहीं है पर भगवान की तरह पूजनीय है. यही पूजा और पवित्रता का भाव मनुष्य को जीवन्त बनाता है. इसी लिए सभी ॠषि मुनियों ने सारी सृष्टि और सम्पूर्ण जीवन को पवित्र माना है. उन्होंनें भगवान को सर्वव्यापी माना है जो अपनी सृष्टि से परे नहीं है. जैसे नृत्य और नर्तकी. श्री श्री ने और विस्तारपूर्वक बताया - आत्मा को विविधता प्रिय है. क्या सिर्फ एक ही तरह की सब्जी और् फल होते हैं? भगवान ने भिन्न भिन्न तरह के फल सब्जी रचे. केवल एक ही प्रकार का वृक्ष नहीं है, ना ही केवल एक ही प्रकार का साँप, बादल, मच्छर . आप अपने कपडे भी अवसर के अनुसार बदलते हैं. तो यह चेतना जो समस्त सृष्टि के रुप में अभिव्यक्त है - कैसे नीरस हो सकती है? केवल एक ही ईश्वर है अनेक रुपों में. केवल एक ही ईश्वर मानना चाहिए. जब तुम दिव्यता की इस विविधता को स्वीकार करते हो तो तुम कट्टरपंथी या रुढिवादी होने से बचते हो.

SIMI -(कमरे में सन्नाटा छा गया और निरउत्तर होकर चारों एक दूसरे की तरफ़ देखने लगे. फिर उनका मुखिया बोला) मैं और मौलाओं से मश्विरा करके बताऊँगा.
श्री श्री - (करुणापूर्वक) कोई बात नहीं (हाथों को लहराते हुए) चलो मज़हब की बातें छोडते हैं, हम सब इन्सान हैं चलो एक शांतिपूर्ण समाज का निर्माण करें और विकास के लिए सोचें.

SIMI - नहीं, नहीं, नहीं आप क्या कह रहे हैं? आप इस दुनिया की बातें कर रहे हैं. हम इस दुनिया में जो भी करते हैं वह मायने नहीं रखता. कुरान कहता है -शाश्वत जिन्दगी में जो हासिल होगा - वही मायने रखता है, भौतिक दुनिया की फ़िक्र छोड़ोे. कौम की खिदमत करके तुम दुनिया में ही फँसे रहोगे. तुम्हें अल्लाह के हुक्म की तामील करनी है. अल्लाह ही इकलौता खुदा है और मोहम्मद ही आखिरी पैगंबर.
श्री श्री - इस पर श्री श्री ने उनको रोका और कुछ देर बाद पूछा - क्या आपको लगता है कि सिक्खों के गुरु पैगम्बर नहीं है? क्या मीराबाई एक पैगम्बर नहीं है? या चैतन्य महाप्रभु?

SIMI - (एक बार पुनः सन्नाटा छा गया उनके चहरे के भाव में बदलाव था - कठोरता की जगह अब अनिश्चितता झलक रही थी. श्री श्री पहले जैसे ही स्वाभाविक थे) नहीं - आप जन्नत तभी जा सकते हैं जब आप अल्लाह और कुरान को मानते हैं.

श्री श्री - नहीं प्यारों, बुध्द, महावीर, नानक, ईसामसीह, शंकर सभी हैं क्या आप समझते हैं कि यह सब जन्नत में नहीं हैं. अगर नहीं हैं - तो जन्नत की अपेक्षा मैं इन लोगों के साथ रहना अधिक पसंद करुँगा.

SIMI - आप इतने अच्छे इन्सान हैं पर हमें आप पर तरस आता है क्योंकि आप हकीकत को नहीं समझ पा रहे हैं. आप अल्लाह तक नहीं पहुँच पाएँगे. आप को अल्लाह की रहमत कभी नहीं मिलेगी.
श्री श्री - कोई बात नहीं. (शरारत भरी मुस्कान के साथ) मैं तो इन लोगों के साथ में रहूँगा. (शंकर, नानक आदि)

( श्री श्री की धैर्य की सराहना करते हुए भी हम लोग इन युवकों के भ््रामित धारणाओं के प्रति चिंतित थे. कमरे में उपस्थित और लोग भी अधीर हो रहे थे कि श्री श्री इन चारों को इतना अधिक समय क्यों दे रहे हैं जो इतने ग्रहणशील भी नहीं हैं और जबकि बाहर सैकड़ों लोग श्री श्री के दर्शन मात्र की प्रतीक्षा में थे)
SIMI -क्या आप जानते हैं कि 1400 साल पहले बीच रेगिस्तान में अल्लाह नें कुदरत के राज क़ा ऐलान करा? जब विज्ञान का इजाद भी नहीं हुआ तो अल्लाह ने बताया कि अणु सबसे छोटा कण है.
श्री श्री - (मुस्कराते हुए कहा) हाँ - शास्त्रों में यही बात 10,000 साल पहले कही गई है. शास्त्रों में कहा जाता है धरती 1900 करोड वर्ष पुरानी है. सत् देश और काल के परे है. यह एक स्थान और एक समय से बंधा हुआ नहीं है. हमें एक वैज्ञानिक आध्यात्मिकता की आवश्यकता है.

आखिर में प्रसाद के रुप में श्री श्री ने चारों को लड्डू दिया. अब उनके चेहरों पर हल्की मुस्कुराहट की झलक थी. जाते जाते श्री श्री ने उनको गले से लगाया. निश्चित तौर पर उनकी कठोरता में कमी आ चुकी थी. क्या उनकी मनोवृत्ति में कुछ बदलाव था? हम सोच रहे थे - क्या यह मनोवृत्ति टिकी रहेगी या वह लोग अपनी पुराने कट्टरवादी वृत्ति में लौट जाएंगे? पर एक बात पक्की थी कि श्री श्री के साथ हुई इस मुलाकात को वह भूल नहीं पाएंगे.

बाद में जब श्री श्री भोजन कर रहे थे किसीने उनसे पूछा, ''ऐसा क्यों है कि इस्लाम दुनियाभर में इतने आतंकवादियों को जन्म दे रहा है? किसी भी दूसरे धर्म से इतने आतंकवादी नहीं उपजे - इसका क्या कारण है?

श्री श्री - उनके अंदर की आग और प्रतिबध्दता को देखो. उनकी अच्छाईयों को अपनाओ और सीखो कि तुम्हें क्या नहीं करना चाहिए. उन्हें खराब व्य्क्ति की उपाधि नहीं दो. उनको वेदान्त का ज्ञान नहीं मिला है. (फर मिर्च में घी मिलाते मिलाते श्री श्री मुस्कराते हुए बोले) इस सृष्टि में हरेक चीज क़ा अपना स्थान है.

 

माँ का सपना सच हुआ - डा0 कैथरीन कोमाण्डा

डॉ0 कैथरीन कोमाण्डा, पी.एच.डी., संयुक्त राज्य अमेरिका में विश्व धर्मों के अध्ययन की प्रोफ़ेसर है।

मेरी माँ हमेशा मुझे बताया करती थी कि बचपन से ही मुझ पर एक फ़रिश्ते की कृपा दृष्टि है। मैं उनसे अक्सर वह कहानी सुनाने को कहा करती थी, जिसमें यह 'फ़रिश्ता' उनसे मिलने आया और उनका सारा भय हर ले गया।
मेरी माँ के लिये उनकी गर्भावस्था बहुत कष्टदायी थी। उस दौरान वे अधिकतर बीमार ही रही, और अंत में उनके साथ एक कार दुर्घटना हो जाने के कारण उन्हें बिस्तर से उठने तक को मना कर दिया गया। डॉक्टरों को डर था कि शायद मैं जीवित इस दुनिया में न आ सकूँ। मेरी माँ भय व चिंता के कारण ठीक से सो भी नहीं पाती थीं। एक रात उनका कमरा एक सुनहरे प्रकाश से भर गया और एक दिव्य आकृति उनके सामने प्रकट हुई। माँ बताती थी कि उन्होंने सफ़ेद रंग के ढीले वस्त्र पहने हुए थे, उनके बाल लंबे और काले थे, और उनके एक दाढ़ी भी थी।
पर माँ के अनुसार उस दिव्य पुरूष में जो सबसे मनोहर थी वह थी उनकी ऑंखें। माँ ने कभी भी इतनी सुंदर ऑंखें नहीं देखी थीं। वे बिना कुछ कहे ही, उन ऑंखों से मानो सारी सृष्टि का प्रेम माँ पर न्यौछावर कर गए। प्रेम की उन लहरो ने माँ का सारा भय धो दिया। माँ हमेशा कहती थीं कि उन्हें लगता था कि वे दिव्य पुरुष शायद जीसस थे, पर वे जो भी थे, माँ उन्हें कभी भूल नहीं पायी और उस घटना के बाद, आज तक, उन्हें जीवन में किसी भी बात का भय न रहा।

जब मैं उन्नीस वर्ष की थी और कॉलेज में पढ़ती थी, तब मैं गुरुजी से मिली। मेरी माँ सोचने लगी कि शायद मैं किसी विचित्र धार्मिक पंथ में शामिल हो गयी हँ और वे मुझको लेकर काफ़ी चिंतित रहती थीं। जब मैं अपनी साधना करती थी तो उन्हें लगता था कि मेरे कमरे से अजीब सी आवाज़ें आ रही हैं और वे दूर से, मेरे कमरे मे रखी हुई गुरुजी की फोटो को देखतीं और सोच में पड़ जातीं कि, पता नहीं यह कौन संत हैं। एक समय आया, उन्हें कैंसर हो गया, तब उन्होंने मुझसे जानना चाहा कि मेरे गुरु कौन हैं, क्या सिखाते हैं और कैसे दिखते हैं। जब मैंने उन्हें उनका चित्र दिखाया तो वे रो पड़ीं। मैंने उनसे पूछा क्या बात है तो उन्होंने उत्तर दिया, ''यह वहीं दिव्य पुरुष हैं जो तुम्हारे पैदा होने से एक रात पहले मेरे पास आये थे।''

रहस्यमय स्थल
कई हर्ष पूर्ण वर्ष बीत गये। एक समय ऐसा आया जब मुझे लगने लगा कि संस्था तो बहुत बड़ी हो गयी है, पंरतु साथ ही साथ संगठन औपचारिक होता जा रहा है जिससे व्यक्तियों के बीच के घनिष्ठ संबंध कम हो रहे हैं। मैं अपने को अलग-थलग महसूस करने लगी। मैं हमेशा शिकायतें करती रहती थी।

उस साल, गर्मी में, गुरुजी कैलिफ़ोर्निया में थे, और बर्कले में सार्वजनिक सभा करने वाले थे। अपनी नकारात्मक भावनाओं के चलते मैं वहाँ गुरुजी से मिलने भी नहीं गई। फिर मैंने सुना कि गुरुजी सैन जोज़ जाने वाले थे। मैंने अपने आप से कहा कि मैं उनसे मिलने नहीं जाऊँगी। आश्चर्यजनक रूप से, अगली सुबह बिना कुछ सोचे-समझे, मैं बस गाड़ी में बैठी और चल पड़ी। मैंने लंबा रास्ता लिया और खिली धूप, समुद्र की लहरो व पहाड़ियों का आनन्द लेती हुई वहाँ पहुँची। शहर में दाखिल होते ही मुझे एकदम से एहसास हुआ कि मैं तो यह भी नहीं जानती की गुरुजी कब और कहाँ सभा करने वाले हैं। न ही मेरे पास कोई फ़ोन नंबर था। मेरे वहाँ ट्रैफ़िक भी बहुत थी और मुझे चिंता होने लगी कि गुरुजी को कहाँ ढूंढूँ। मेरे अंदर सहज ही एक प्रार्थना ने जन्म लिया, तभी एक कार मेरे बगल से निकली जिसमें भारतीय मूल के लोग सवार थे। मैंने सोचा शायद ये लोग मुझे किसी भारतीय दुकान का पता बता दें जहाँ गुरुजी के कार्यक्रमाें का पोस्टर या कार्यक्रम का समय लगा हो। जैसे ही मैंने यह सोचा, वैसे ही अचानक मुझे उनके डैश बोर्ड पर सूर्य की किरणों से चमकता हुआ गुरुजी का चित्र दिखाई पड़ा। बस, मैंने अपनी कार उन लोगों के पीछे लगा दी और उसके बाद ही मस्ती शुरू हो गयी। मैंने देखा कि हाईवे पर कई गाड़ियाँ मुझे हटाकर आगे बढ़ने की कोशिश कर रही हैं। तब मैंने थोड़ा ध्यान से देखा कि यह जाँबाज़ ड्राईवर तो हमारे अपने भक्तगण हैं (जब गुरुजी कार से यात्रा करते है, तो बाकी लोगों में गुरुजी की गाड़ी के साथ अपनी गाड़ी लगाने की होड़ लगती है।) मैं अनजाने में ही उस होड़ में शामिल हो गयी थी। मुझे लगा कि जिस कार के पीछे मैं हँ क्या उसी में गुरुजी हैं ? वह कार हाईवे छोडकर घने जंगल में बने एक कच्चे रास्ते पर जाने लगी और मैं भी पीछे चली गई। जब काफ़िला रुका तब मैं अपनी गाड़ी से निकल कर पेड़ो के बीच भागी और एक खुली जगह पर आ कर रुक गई। गुरुजी वहाँ एक तख्ती के नीचे खड़े थे जिस पर लिखा था 'गुप्त स्थल' (द मिस्ट्री स्पॉट)। वे एक बड़ी सी मुस्कान के साथ बोले ''तुम सड़क पर मिली थी'' मैंने आश्चर्य से पूछा ''आपको तो उत्तर से दक्षिण जाना था और मुझे आप दक्षिण से उत्तर जाते हुए मिले'' गुरुजी हँस कर बोले कुछ बातें बस रहस्य ही है। बाद में मुझे पता चला कि उस दिन सुबह उठ कर गुरुजी ने अपना पहले निष्चित किया रास्ता बदल दिया था। रास्ते में उन्होंने एक गलत मोड़ ले लिया था और फिर उन्हें हाईवे पर वापस लौटने के लिये दक्षिण से उत्तर की ओर आना पड़ा। वहीं पर मेरी कार 'अनंत' से टकराई और उसके बाद मैंनें कभी भी शिकायत नहीं की।

आवाज़ जो आई नहीं - श्री प्रकाश एन

श्री श्री प्रकाश एन, त्रिवेन्द्रम के एक कम्प्यूटर व्यवसायी है। आजकल यह सॉफ्टवेयर निर्यातक हैं व इसके पूर्व के.एल.एम (रॉयल डच एयरलान्इस में) सूचना प्रबंधक रह चुके हैं।

केरल के वेनद में आयोजित दिव्य सत्संग में भाग लेने व गुरुजी से मिलने हम चारों सड़क मार्ग से गये। कार्यक्रम के अंतिम दिन हम वहाँ से लौटने के लिये सुबह ही चले, क्योंकि यात्रा तेरह घंटे की थी। जाने से पहले गुरुजी के दर्शन करने की इच्छा से हम लोग प्रात: काल लगभग 6:50 पर उनके कुटीर पहुँच गये। दरवाजा बंद था। हम पास ही खड़े प्रतीक्षा करने लगे। तभी मेरी छोटी बेटी निवेदिता जोर से बोली '' देखो - गुरुजी '' गुरुजी हमारे पीछे खड़े थे। उन्होंने पूछा ''क्या तुम वापस जा रहे हो ? गाड़ी सावधानी से चलाना'' यह कहकर वे वहाँ से ऐसे निकल गये मानो ग़ायब हो गये हों।

सफ़र करते करीब नौ घंटे बीत चुके थे। सूरज आम के वृक्षों को छूता हुआ डूब रहा था। मैं अपने
मैं अपने विचारों में खोया हुआ था। इस मनमोहक दृश्य के बीच में, एक जुलूस हमारी ओर बढ़ रहा था। हमारी गाड़ी को एक गली की ओर मोड़ दिया गया। उस गली में भी लोग भरे हुए थे। भीड़ उत्तेजित होने लगी। हमारी गाड़ी उस जाम में सबसे आगे थी। मेरे मन ने कहा कि मैं वहीं रुक जाऊँ पर मैं गाड़ी को आगे बढ़ाता चला गया। तभी एक युवक एक बड़ा सा डंडा लेकर गाड़ी के सामने आकर खड़ा हो गया। उसने डंडे को बोनट पर ज़ोर से मारा। पर कोई आवाज़ नहीं हुई, डंडे ने गाड़ी को छुआ तक नही। भीड़ अचानक साफ़ हो गई और मैंने गाड़ी का एक्सेलेरेटर दबाया और आगे बढ़ गया।
यात्रा
मुझे नहीं पता, ऐसे कितने लोग हैं, जिन्होंने मेरी तरह अति दरिद्रता से सम्पन्नता का अनुभव किया है। मैं एक मेहनती, किंतु विद्रोही, अभिमानी व नास्तिक स्वभाव का व्यक्ति था।

मैंने स्वामी चिन्मयानन्द, भगवान रजनीश, दीपक चोपड़ा इत्यादि को अपने खाली समय में सुनने व पढ़ने की चेष्टा की। दिसम्बर 1998 में मुझे 'बैंग ऑन द डोर' जो मेरी पत्नी चिन्मयी ने खरीदी थी, पढ़ने का अवसर मिला। इस पुस्तक से मैं बहुत प्रभवित हुआ और मुझे लगा कि इसका लेखक बहुत बुध्दिमान व ज्ञानी है।

अगले सप्ताह, जनवरी 1999 में मैंने समाचार पत्र में एक छोटा सा विज्ञापन देखा कि ''आर्ट ऑफ लिविंग कोर्स आज से।'' मैंने पत्नी से कहा कि मैं यह कोर्स अवष्य करूंगा। मैं जानना चाहता था कि इतना विलक्षण व बुध्दिमान व्यक्ति मुझे जीने की कला कैसे सिखायेगा ? मैं जब एयरलाइन्स में था तब मैंने कई व्यक्तित्व विकास के कार्यक्रमों में हिस्सा लिया था। लेकिन इस 6 दिन के कोर्स का हर एक दिन अद्भुत था। कोर्स ने मेरे जीवन में एक स्थायी बदलाव किया व जीवन के प्रति मेरा दृष्टिकोण ही बदल दिया। मैं 'सामान्यत: क्रोधित और तनावग्रस्त' न रहकर 'सामान्यत: प्रसन्न' रहने लगा।

कोर्स करने के तीन सप्ताह के भीतर मैं आश्रम में एडवांस्ड कोर्स करने पहुँच गया। वहाँ गुरुजी भी थे। मैं उनसे मिला और पहली बार मुझे जो अनुभव हुआ उसे शब्दों में 'उन्मुक्त प्रेम' ही कहा जा सकता है। उनकी सादगी, निर्दोष भाव, प्रेम, सब कुछ शब्दों के परे था। मैंने घर लौटकर ऐसा अनुभव किया, मानो मैं स्वर्ग से लौट कर आया हूँ। लौटने के बाद मेरे व्यापार में व्रिद्धि होने लगी। मुझे अपने परिवार (मेरी पत्नी व दो बेटियॉ, गायत्री और निवेदिता ) के साथ बिताने के लिये समय मिलने लगा और, शादी के 18 वर्षो के बाद घर स्वर्ग बन गया।

मैं अगस्त 1999 में बेसिक कोर्स (अब पार्ट-1 कोर्स) का प्रशिक्षक बन गया और अब मैं गुरुदेव का निमित्ता हूँ। 6 दिन में उनकी कृपा से कैसे कोर्स में आये हुए लोगों का दु:ख दूर हो जाता है, यह देखकर आश्चर्य होता है। और जैसे-जैसे मैं शिविरों में अधिक से अधिक समय देता जाता हँ, मैं एक विचित्र बात का अनुभव करता हँ - मेरे व्यवसाय में व्रिद्धि, तथा मेरे कार्यभार में अत्याधिक कमी। मेरी ज़िम्मेदारी श्री श्री ने ले ली है। जीवन ज्वरता व व्यर्थ चेष्टाओं से मुक्त हो गया है।

स्मृति के खेल
दिसम्बर 1999 में मैंने गुरुजी से कहा कि मुझसे सहजता से घ्यान नहीं होता। कई महीने बीत गये, और मैं इस बात को भूल गया। एक साल के बाद, मैं उनसे कोट्टायम के सत्संग में मिला। जब मैं उनके कमरे से बाहर जा रहा था, उन्होंने मुझे रुकने का इशारा किया और रघु जी मेरे लिये गुरुदेव के घ्यान की सी.डी. लेकर आये। जो व्यक्ति हर सप्ताह हज़ारो लोगों से मिलते हैं, जो विश्व भर का भ्रमण करते हैं- वे हम सबकी छोटी-छोटी आवश्यकताओं का कितना ख़याल रखते हैं।

ऐसा माना जाता है कि अध्यात्मपथ पर अग्रसर होने के लिये हमें अपने दायित्वों से मुँह मोड़ना पड़ता है। परंतु मैं तो संसार में रहते हुए तथा अपने सभी दायित्वों का निर्वाह करते हुए श्री वृध्दि, स्वास्थ्य वृध्दि, आनन्द वृध्दि या कहें तो सर्व समृध्दि का प्रतिपल अनुभव कर रहा हँ।

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