Wednesday, 1 September 2010

ज्ञान के मोती

"क्रोध को औजार की तरह प्रयोग करो, तुम क्रोध के औजार मत बन जाना"

प्रश्न : मैं अभी अभी इस पथ पर शुरुवात की है। आत्मा क्या है मैं कैसे समझूं?

श्री श्री रवि शंकर : दुनिया में सब कुछ बदक रहा है। हमारा अनुभव बदलता है, हमारी बुद्धि बदलती है। हम अलग अलग समय अलग तरह से सोचते हैं। हमारे विचार बदल बदल रहे हैं, और हमारी भावनायें भी बदल रहीं हैं। ये कैसे जानते हो कि सब कुछ बदल रहा है? क्योंकि ऐसा कुछ है जो नहीं बदल रहा है। वो जो नहीं बदल रहा है उसके अस्तित्व के बिना तुम ये जान भी नहीं सकते हो कि सब बदल रहा है।

तो तुम अनुमान लगाते हो। अगर धुंआ देखा तो तुम कहोगे कि, ‘कहीं आग होगी।’ तुम केवल धुंये को देख कर ये अनुमान लगा लेते हो कि कहीं आग होगी। उसी तरह जो बदल नहीं रहा है तुम उसका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं कर सकते, फिर कैसे जान लेते हो? अनुमान से।

प्राचीन समय के लोग कहते थे कि कुछ जानने के तीन उपाय हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम। तीन प्रमाण हैं। एक है प्रत्यक्ष – तुम सीधे उसे देख रहे हो। दूसरा है अनुमान – तुम अंदाज़ा लगाते हो। जैसे कि, तुमने धुंआ देखा तो ये जान लेते हो कि कहीं आग है। है ना! तो जब तुम देखते हो कि सब कुछ बदल रहा है, तो तुम ये अनुमान लगाते हो कि, ‘हमारे भीतर ऐसा कुछ है जो नहीं बदल रहा है, और वो आत्मा है। तुम उसे जो भी नाम दो!’

तो, हम शरीर से सूक्ष्मतर में गये – शरीर, सांस, मन, बुद्धि, स्मृति और अहंकार। इन सब से सूक्ष्म है आत्मा। ये आत्मा क्या है, ये जानना ही आध्यात्म है, ध्यान है! और ये आत्मा किस चीज़ से बनी है? ये है!

प्रश्न : कुछ विचारधाराओं में आत्मा के अस्तित्व को, या विश्व की चेतना शक्ति के अस्तित्व को नकारा गया है। आप इस बारे में क्या कहेंगे?

श्री श्री रवि शंकर : ऐसा नहीं कहा जा सकता कि आत्मा नहीं है। जो भी ये घोषणा करता है कि आत्मा नहीं है, वो ये कैसे जानता है? कौन जानता है? कौन कह रहा है? हां?

अगर मैं कहूं कि मैं किसी चीज़ में विश्वास नहीं करता तो कम से कम मैं अपने इन शब्दों पर तो विश्वास करता हूं! मैं ये तो नहीं कह सकता कि, ‘मैं किसी चीज़ में विश्वास नहीं करता, अलावा अपने इन शब्दों के जिन्हें मैं अभी कह रहा हूं।’

तुम्हें पता है ये इस पूरे विश्व में सबसे बेवकूफ़ी भरी बात होगी, अगर कोई कहे कि, ‘मैं किसी चीज़ में विश्वास नहीं करता हूं।’ जो व्यक्ति ऐसा कह रहा है कम से कम अपने आप में तो विश्वास करता होगा! क्या तुम समझ रहे हो कि मैं क्या कह रहा हूं? समझे?

अगर मैं कहूं कि मुझे किसी चीज़ में विश्वास नहीं है, तो मुझे ये भी कहना होगा कि, ‘ये शब्द जो मैं तुम्हें अभी कह रहा हूं, मुझे उन में भी विश्वास नहीं है।’ ये वाक्य कि, ‘मुझे किसी चीज़ में विश्वास नहीं है।’ झूठ है, क्योंकि तुम कम से कम इस वाक्य पर तो विश्वास करते हो, वर्ना तुम ये वाक्य क्यों कहते?

तो कोई भी व्यक्ति ये सत्यापित नहीं कर सकता है कि वो किसी भी चीज़ में विश्वास नहीं करता है।

अगर वो ऐसा कहता है तो या तो वो मानसिक रूप से असंतुलित है या आत्मज्ञानी है (हंसी)। ये शब्द जो हम कहते हैं कि, ‘सब कुछ बदल रहा है’ किसी संदर्भ में लिये जाते हैं। तुम जो भी देखते हो, छूते हो, महसूस करते हो, ऐसा पंचेन्द्रियों के ज़रिये करते हो। इसीलिये हम कहते हैं कि सब कुछ बदल रहा है, पर ऐसा कुछ है जो नहीं बदलता है। अगर एक बार हम उसे जान लेते हैं जो नहीं बदलता, तो फिर हमें कुछ भी हिला नहीं सकता है! ये आत्मज्ञान है! आत्मज्ञान क्या है? मुझमें ऐसा कुछ है जो नहीं बदलता है, मैं नहीं बदलता हूं।

अपनी आत्मा की एक झलक भर मिल जाने से जीवन में कोई भय नहीं रहता।

जब तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास सब कुछ है, मन शांत हो जाता है, स्थित, सृजनात्मक, बुद्धि और अंतरज्ञान से पूर्ण और तुम्हाए भीतर से प्रतिभा खिल उठती है – और जब तुम ध्यान में बैठते हो तब ऐसा होता है, तुम सब कुछ छोड़ देते हो और बस बैठ कर ध्यान करते हो। सब कुछ छोड़ दो। और यदि कुछ क्षणों के लिये भी मन स्थिर हो जाता है और आपके उस ना बदलने वाले अस्तित्व से मिल जाता है, तो काम हो गया! जीवन का उद्देश्य पूरा हो गया!

हर मानव मन-शरीर, सागर की एक लहर की तरह है। तब तुम ये जान जाते हो कि इस पूरे विश्व के कण कण में जीवन व्याप्त है। हमारे शरीर इस सागर में तैरते ख़ाली सीपियों की तरह हैं। जीवन सागर में कई शरीर हैं। तो, केवल शरीर में जीवन हो, ऐसा नहीं है। जीवन में शरीर है।

अगर ये बहुत ज़्यादा हो गया और तुम्हें अभी समझ नहीं आया, तो इसे अपने मन के किसी पिछले हिस्से में सहेज लो, किसी दिन तुम ये बात समझ जाओगे। ठीक है? ये केवल एक सिद्धांत हो सकता है, और तभी तो हम सिद्धांतों के साथ क्या करते हैं? उन्हें मन में किसी पिछले भाग में सहेज लेते हैं। हम केवल अपने अनुभव के अनुसार चलते हैं। देखो, हम अपने अनुभव के साथ और अधिक परिपक्व होते जाते हैं...हां। अच्छा है!

प्रश्न : आपने हमें आत्मा का अनुभव करने के लिये कहा। आपने अपनी आत्मा को कब सब से पहले अनुभव किया? हमें जानकर बहुत खुशी होगी।

श्री श्री रवि शंकर : मेरा पहला अनुभव कब हुआ था? मुझे नहीं पता! वो बचपन में था, फिर मैं बड़ा हुआ और ये अनुभव और भी स्पष्ट हो गया। शायद १७-१८ साल की उम्र में।

प्रश्न : हम ये कैसे जाने कि हम अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा कर रहे हैं या किसी और का काम कर रहे हैं?

श्री श्री रवि शंकर : ठीक है! हम ये कैसे जाने कि हम जीवन में जिस काम को करने आये हैं वो कर रहे हैं कि नहीं? हम यहां क्या करने आये हैं? देखो क्या तुम खुश हो और तुम्हारे आस पास लोग खुश है। क्या तुम अपने आस पास के लोगों के लिये जो भी कर सकते हो, कर रहे हो? क्या तुम प्रेम बांत रहे हो और ज्ञान प्राप्त कर रहे हो? जो भी ज्ञान तुम्हारे पास है क्या तुम उसे लोगों के साथ बांट सकते हो? तुम्हें अपने आप से बार बार ये प्रश्न पूछने चाहिये, और तुम्हें पता है, कभी कभी हमें खुद पर बहुत शक नहीं करना चाहिये – कभी कभी खुद पर शक होता है, ‘क्या मैं ठीक ये कर रहा हूं?’

बस स्वाभाविक रहो। हर काम में कुछ अच्छाई और कुछ बुराई होती है। कोई भी कर्म निर्दोष नहीं है। कर्म के क्षेत्र में कुछ ना कुछ कमी रहती ही है चाहे वो १ या २ प्रतिशत ही क्यों ना हो। तो, हर काम में कुछ ना कुछ कमी हो सकती है।

उसी तरह, बोला गया कोई भी शब्द अपूर्ण हो सकता है। निर्दोष क्या हो सकता है – हमारा उद्देश्य, हमारा भाव। क्या तुम समझ रहे हो कि मैं क्या कह रहा हूं? तुम किसी के प्रति दुर्भाव ना रखो, ऐसा संभव है।

तुम्हें पता है, मैंने इतने सालों में कभी किसी से बेइज़्ज़ती के शब्द नहीं कहे। हद से हद जो शब्द मेरे मुंह में आता है, वो है, ‘बेवकूफ़’। जब मुझे बहुत गुस्सा आता है, तो मैं आवाज़ ऊंचीं कर के कहता हूं, ‘अरे, बेवकूफ़!’ पर मैंने कभी किसी को श्राप नहीं दिया, मैं ऐसा ही बना हूं। मैं इसके लिये कोई श्रेय नहीं ले सकता हूं, क्योंकि इसमें मेरा कोई प्रयत्न नहीं है। ये सीखने के लिये मैं किसी कोर्स या स्कूल में नहीं गया – कि कैसे मैं किसी को बुरा-भला ना कहूं, इल्ज़ाम ना दूं। चीखना, चिल्लाना, या परेशान होना मेरे स्वभाव में नहीं है। बुरे शब्द मेरे मुंह में आते ही नहीं हैं।

प्रश्न : क्या कभी क्रोध नहीं करना चाहिये?

श्री श्री रवि शंकर : ऐसा मत सोचो कि तुम सब को हर समय क्रोध से मुक्त होना चाहिये। ज़रूरत पड़ने पर क्रोध को एक औज़ार की तरह प्रयोग करो। मैं ऐसा करने का प्रयत्न करता था, पर बहुत सफल नहीं रहा। कभी कभी मैं अपना क्रोध दिखाने का प्रयत्न करता हूं, पर इससे कोई फ़ायदा नहीं होता क्योंकि मुझे जल्दी ही हंसी आ जाती है और बाकी सब लोग भी साथ में हंसने लगते हैं। लोग विश्वास ही नहीं करते कि मैं गुस्सा हूं।

पर, कभी कभी क्रोध अच्छा होता है। ख़ासतौर पर जब दुनिया में भ्रष्टाचार है, अन्याय है, और हर तरह के लोग हैं जो हर तरह के ग़लत काम करते हैं और तुम्हारा फ़ायदा उठाते हैं। ऐसी स्थिति में ये आवश्यक है कि तुम थोड़ा भंवों को चढ़ाओ, गुस्सा दिखाओ, ये अच्छा रहेगा।

पर ये ख़्याल रखना कि तुम गुस्सा दिखाओ पर उसे अपने हृदय में मत उतारो, परेशान मत हो।

देखो, ऐसा एक ही दिन में नहीं हो जाता है, और यहीं पर साधना से मदद मिलती है। हां, मैं ये नहीं कह रहा हूं कि सब्जी की तरह बन जाओ, या मानसिक रूप से अविक्सित व्यक्ति बन जाओ, हमेशा मुस्कुराओ और कभी परेशान ही मत हो – जब स्थिति की मांग हो, तो गुस्सा दिखाओ। पर कभी भी उस क्रोध को अपने मन में नफ़रत की सड़ान्ध मत बनने दो। क्रोध को क्षणिक ही रखो।

तुम्हें पता है स्वस्थ क्रोध क्या है? पानी की सतह पर लकीर खींचो तो वो कितनी देर टिकती है? बस उतनी ही देर क्रोध टिके तो वो स्वस्थ क्रोध है। अगर क्रोध क्षणिक है और उस पर तुम्हारा नियंत्रण है तो वो स्वस्थ क्रोध है, और तुम ठीक हो। तुम गुस्सा हो सकते हो, पर गुस्सा तुम पर हावी ना हो जाये। अक्सर क्या होता है कि क्रोध तुम पर हावी हो जाता है और तुम मुश्किल में पड़ जाते हो। ज्ञान इसका विरोधात्मक है। समझे? तुम छुरी का प्रयोग करो पर छुरी तुम्हारा प्रयोग ना करे!

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